लड़कपन में एंटी सोशल एक्टिविटी
साइकेट्रिस्ट डॉक्टर नवीन सहाय के अकॉर्डिंग यूथ में प्रेशर और टेंशन को टेकल करने की पावर में कमी आ रही है। इससे यूथ में मानसिक रोग बढ़ रहे हैं। होना तो यह चाहिए कि पेरेंट्स को स्टार्टिंग ऐज में ही बच्चों को मॉरल वैल्यूज सिखानी चाहिए। मगर पैरेंट्स अपने करियर की रेस में हर पहलू इग्नोर करते हैं। यही वजह है कि लड़कपन की उम्र में ही बच्चे नशाखोरी, एंटी सोशल एक्टिविटी और क्राइम का रुख कर रहे हैं। डॉक्टर्स की मानें तो हॉस्पिटल तक आने वाले पेशेंट्स के पेरेंट्स डिजीज का इलाज दवाइयों में ढूंढते हैं, जबकि अक्सर ये मामले काउंसलिंग से ही ठीक हो सकते हैं।
50 परसेंट हैं यूथ केसेज
डॉक्टर्स के मुताबिक, ओपीडी में आने वाले पेशेंट्स में 50 परसेंट यूथ केसेज है। एलार्मिंग फैक्ट ये है कि इन केसेज में 80 परसेंट मामलों में सीरियस डिजीज सामने आ रही है। डॉ। नवीन के अकार्डिंग पिछले 3 सालों में 20 से 30 साल की ऐज ग्रुप के पेशेंट में बढ़ोत्तरी दर्ज हो रही है। उन्होंने बताया कि इन पेशेंट्स में एपीलेप्सी, हिस्टीरिया, अलजीमर, माइग्रेन, शिजोफ्रेनिया, मैनिया और डिप्रेशन की प्रॉब्लम सामने आ रही है।
सब कुछ पाने की तमन्ना
आधुनिकीकरण के चलते यूथ्स की महत्वाकांक्षाएं बढ़ती जा रही हैं। डॉक्टर्स मानते हैं कि दुनिया भर की फैसिलिटिज को जेब में रखने की तमन्ना में यूथ मेंटल टेंशन के जाल में फंसता जा रहा है। हालात यह हैं कि एक्सिलेंस से यूथ कॉम्प्रोमाइज करना नहीं चाहते। साइकलॉजिस्ट मानते हैं कि यह फ्रस्टेशन यूथ अपने पार्टनर्स पर निकल रहे हैं।
Fact file
-मेंटल डिसऑर्डर के 50 परसेंट मामले 14 साल की उम्र से शुरू हो जाते हैं।
-डिसएबिलिटी का सबसे बड़ा कारण टेंशन, फ्रस्टेशन और साइकलॉजिकल बिहेवियर के साथ लॉस ऑफ इंटे्रस्ट है।
-हर साल भारत में 8 लाख लोग डिप्रेशन में सुसाइड कर लेते हैं।
-डब्लूएचओ के सर्वे में सामने आया कि 40 परसेंट मेंटल पेशेंट का उनकी फैमिलीज हॉस्पिटल में इलाज नहीं कराती हैं।
ये हैं सबसे common disease
-मैनिया
-शिजोफ्रेनिया
-डिप्रेशन
-एंग्जायटी डिसऑर्डर
-हिस्टीरिया
-अलजीमर
-एपीलेप्सी
-माइग्रेन
-ऑबसेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर
बच्चों में बढ़ रही मेंटल प्रॉब्लम के लिए पैरेंट्स भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। पेरेंट्स को कंडक्ट डिसऑर्डर के लिए मेडिसिन का सहारा न लेकर बच्चों का ख्याल रखना चाहिए। उनकी समय-समय पर काउंसलिंग होनी चाहिए। साथ ही बच्चों में सोशल वैल्यूज पैदा करने के लिए इफर्ट करना चाहिए।
- डॉ। नवीन सहाय, साइकेट्रिस्ट
'कब खत्म होगा ये इंतजार'
मुंह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन।
आवाजों के बाजारों में, खामोशी पहचाने कौन।
निदा फाजली की यह लाइनें मेंटल हॉस्पिटल के उन पेशेंट्स पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं जो काफी पहले ठीक हो चुके हैं लेकिन घर जाने के लिए आज भी अपनों का इंतजार कर रहे हैं। सोसाइटी में मेंटल इलनेस को लेकर फैली भ्रांतियों का ही परिणाम है कि वर्षों पहले ठीक हो चुके पेशेंट्स की सुध लेने की कोशिश इनके परिजनों ने नहीं की है। मेंटल इलनेस डे पर आई नेक्स्ट ने मेंटल हॉस्पिटल के ऐसे ही कुछ पेशेंट्स का दर्द जाना जिनकी आंखों की रोशनी भले ही कम हो गई हो, मगर अपनों से मिलने की ख्वाहिश रोशन है।
11 साल से इंतजार
रक्षाबंधन के दिन बहन के इंतजार में मेरी आंखें हॉस्पिटल का दरवाजा निहारती रहीं। हर आहट पर लगता था कि शायद मेरे घर से कोई आया हो। बहन ने किसी के हाथों से मेरी राखी भेजी हो। इसी उम्मीद में सुबह से रात हो गई मगर घर से कोई नहीं आया। पिछले 11 सालों से एक-सा दर्द महसूस करने वाले 53 वर्षीय मोर सिंह की आंखे यह बताते हुए आंसुओं से भर गईं। पिछले 11 साल से हॉस्पिटल में एडमिट मोर सिंह के परिवार में उनके बड़े भाई हैं जो सीआरपीएफ में जॉब करते हैं। वहीं छोटी बहन की शादी हो गई है। डॉक्टर्स के मुताबिक मोर सिंह को ठीक हुए 7 साल हो चुके हैं। लेकिन उन्हें घर ले जाने तो दूर मिलने भी कोई नहीं आया। अब मोर सिंह हॉस्पिटल के छोटे-मोटे कामों में हाथ बंटवाते है। हॉस्पिटल से निकलने के बाद क्या करना चाहते हैं। इस सवाल के जवाब में मुस्कुराते हुए कहते हैं, कुछ दिन घरवालों के साथ रहना चाहता हूं। अब सुकून से खेतीबाड़ी करने की इच्छा है।
सात जन्मों का नाता टूटा
हॉस्पिटल में मोर सिंह अकेले नहीं है, ऐसे 20 पेशेंट्स घर वापस जाने के लिए अपने परिजनों का इंतजार कर रहे हैं। सबकी कहानियां शुरू कहीं से भी हों मगर खत्म घर वालों के साथ पर ही होती है। कुमाऊं के 48 वर्षीय शमशेर सिंह को भी ठीक हुए 3 साल हो चुके हैं। उनके हालचाल के साथ शुरू हुई बातचीत में इस बात की टीस साफ झलकी कि इतने लंबे समय में उनका हाल जानने की कोशिश किसी ने नहीं की। ऐसा नहीं है कि शमशेर सिंह के घर में कोई नहीं है। पत्नी और दो बच्चों के साथ भरा-पुरा परिवार है। शमशेर को दर्द इस बात का भी है कि सात फेरों के वचन के साथ शुरू हुआ रिश्ता इसी जन्म में खत्म हो गया।
अपनों ने भुलाया
डिप्रेशन से शुरू हुई प्रॉब्लम ने 37 वर्षीय विकास को मेंटल हॉस्पिटल पहुंचा दिया। घर से समृद्ध विकास के दो बड़े भाई और एक छोटी बहन है। घर में सर्राफा और कपड़ा का व्यवसाय है। जेपी नगर निवासी विकास का दर्द भी दूसरों से जुदा नहीं। मगर उन्हें विश्वास है कि एक न एक दिन कोई उन्हें लेने जरूर आएगा। विकास ने बताया कि जब वह घर पर थे तो परिवार के सबसे छोटे बेटे होने के कारण माता-पिता के सबसे दुलारे थे। भाई भी उनकी हर इच्छा को सर आंखों पर रखते थे। लेकिन अब सबने भुला दिया। यह सब बताते हुए वह पुरानी यादों में खो जाते है।
भूल जाते हैं परिवार वाले
मेंटल हॉस्पिटल की डायरेक्टर सईदा फातिमा के अकॉर्डिंग लोग मानसिक रोग और पागलपन के बीच का फर्क नहीं समझते हैं। मानसिक रोग पागलपन नहीं होता है। शॉर्ट टर्म मेडिकल कोर्स के बाद 80 परसेंट पेशेंट ठीक हो जाते हैं। वहीं ज्यादातर मामलों में मेंटल हॉस्पिटल में ऐसे पेशेंट्स को एडमिट कर परिवार वाले उन्हें भूल जाते हैं। उन्होंने बताया कि दवा और देखभाल से इन पेशेंट की कंडीशन में सुधार आता है। ऐसे में परिवार वालों का भी सपोर्ट मिल जाए तो उनकी हालत जल्दी सुधरती है। कंडीशन में सुधार के साथ ही पेशेंट को घर के परिवेश में रखना जरूरी होता है। मेंटल हॉस्पिटल एडमिनिस्ट्रेशन ने हॉस्पिटल में एडमिट ऐसे 20 पेशेंट्स की लिस्ट तैयार की है जो ठीक हो चुके हैं।