फेस्टिवल का इनॉग्रेशन थर्सडे को हुआ। फेस्टिवल के आकर्षण का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि डीएम और सिटी मजिस्ट्रेट न केवल इसमें शामिल हुए बल्कि खुद भी पतंगबाजी का मजा लिया। यह फेस्टिवल 9 दिसंबर को भी चलेगा।

देसी पतंग-मांझे की खातिर

सोसाइटी के प्रेसिडेंट फैजल अनीस ने बताया कि वह ये फेस्टिवल इसलिए करवाते हैं ताकि बरेली के मांझे और पतंग के कारोबार को बचाया जा सके। इस समय इस कारोबार से जुड़े आधे कारीगर यह धंधा छोड़ चुके हैं। कोई रिक्शा चला रहा है तो कोई मजदूरी कर रहा है।

देसी मांझे की खासियत

चाइनीज मांझे ने शहर के 40 से 50 परसेंट मार्केट पर कब्जा कर लिया है। आधे दामों में बिकने की वजह से चाइनीज मांझा देसी मांझे पर भारी पड़ रहा है लेकिन देसी मांझे की अपनी ही खासियत है। मांझा बनाने वाले साहिल कुरैशी बताते हैं कि देसी मांझे में कांच के साथ जड़ी-बूटियों वाले मसालों का इस्तेमाल होता है। चाइनीज मांझे में केमिकल्स का यूज किया जाता है। चाइनीज मांझा प्लास्टिक से बनता है। देसी मांझा कपास से बनता है। यही वजह है कि चाइनीज मांझा गर्दन भी काट देता है जबकि देसी मांझा शरीर से लगते ही खुद टूट जाता है लेकिन नुकसान नहीं पहुंचाता।

पतंगों का archive

पतंगबाज और पतंगसाज इकरार हुसैन ने ग्राउंड में अपनी पतंगों का आर्काइव सजाया। उनके खजाने में आजादी से पहले 1945 की पतंग भी है। यह पतंग गाड साहब के नाम से मशहूर उनके वालिद को लखनऊ के पतंगबाज आसिफ हुसैन ने गिफ्ट की थी। ग्राउंड में बैटमैन, स्पाइडरमैन, प्लेन, ईगल, अंब्रेला, बटरफ्लाई और टॉरपीडो के शेप के साथ जुड़वां आदमियों की पतंग भी खास आकर्षण का केंद्र रही। शो के लिए फेस्टिवल की सबसे बड़ी 9 फीट की पतंग शहर के पतंगसाज जफर हुसैन ने बनाई है। फेस्टिवल ऑर्गनाइज करने में रिजवान, हर्षित तिवारी, शारिक, फराज, फहाद, फैज, हिमांशु, जहीन, आरिफ, अजहर, शानू, आदिल, वसीम और गुड्डू ने सहयोग किया।

यह भी शौक है

जीआईसी ग्राउंड में काइट फेस्टिवल के दौरान अपनी तरह के अनोखे पतंगबाज मौजूद थे। सिविल लाइंस के रहने वाले राजीव टंडन को पतंगबाजी का ऐसा शौक है कि वह अपने लिए पतंगें खुद तैयार करते हैं। इतना ही नहीं चरखी और मांझा भी खुद तैयार करवाते हैं। राजीव नर्सरी चलाते हैं। जब भी पतंग उड़ानी होती है तो बांस की खपच्चियां और कागज लाकर पतंग बनाते हैं। पतंग के मुड्ढे और कमानी बनाने के लिए पहले उन खपच्चियों को तेल पिलाते हैं। उसके बाद उनकी आंच पर सिंकाई करते हैं। मांझा तैयार करने के लिए शैंपेन की बॉटल्स लाकर उनका चूरा बनाते हैं। फिर कारीगर के पास जाकर अपने सामने मांझा तैयार करवाते हैं। उनकी टू इन वन चरखी में मांझा और सद्दी दोनों रहते हैं।

घर जैसा है बरेली

पतंगबाजी में वल्र्ड चैंपियन रह चुके हाजी रईस इस बार अपनी ढेर सारी पतंगों के साथ आए हैं।

इस बार क्या खास है आपके पिटारे में?

मेरी 2004 की बनी पतंग तो पिछली बार की तरह इस बार भी साथ है। इसके अलावा वल्र्ड कप के शेप की खास पतंग भी लाया हूं। यह पतंग पहली बार इसी फेस्टिवल में उड़ा रहा हूं। इसे मैंने इंडिया के वल्र्ड कप जीतने की खुशी में बनाया है। एक सांप के शेप की पतंग भी है। करीब साढ़े 3 फीट का उसका फन है और 60 फीट की टेल।

एक डोर से कितनी पतंगें उड़ाने की तैयारी है?

वैसे तो मैं एक डोर से 300 पतंगें भी उड़ा चुका हूं। इस फेस्टिवल में मैं एक डोर संग 175 पतंगें उड़ाउंगा।

आप तो पतंगसाज भी हैं?

हां, हम अपनी पतंगें खुद ही तैयार करते हैं। बड़ी पतंगों में मार्कीन का कपड़ा यूज करते हैं।

बरेली में आपका बचपन बीता है?

हां, मैं 13 साल की उम्र तक बरेली में रहा। उसके बाद हमारे घरवाले मुंबई शिफ्ट हो गए। तब से वहीं हूं। बरेली आकर घर जैसा ही फील होता है। पिछले फेस्टिवल में भी यहां आया था।

चाइनीज मांझे से कितना नुकसान हुआ है?

यहां तो नहीं लेकिन मुंबई में चाइनीज मांझे पर रोक लग गई है। चाइनीज मांझे की चपेट में आकर कई जानवर वहां मर चुके हैं। चाइनीज मांझे ने देसी मांझा बनाने वाले करीब 50 परसेंट कारीगरों को बेरोजगार कर दिया। हालांकि मैंने देसी मांझे की बदौलत ही कोरिया, ताइवान और फ्रांस के मांझे को काटा है।

हाजी रईस मियां 1970 और 1977 में ऑल इंडिया पतंगबाजी टूर्नामेंट के चैंपियन रह चुके हैं। 1996 में उन्होंने पतंगबाजी का वल्र्ड टूर्नामेंट जीता है।