- प्राइवेट जॉब करने वाले 60 फीसदी लोग जॉब बर्न आउट की चपेट में

- इमोशनल सपोर्ट न मिलने पर किसी भी हद से गुजर सकता है पीडि़त

- सायकोलॉजिस्ट के मुताबिक सिंड्रोम की वजह से बढ़ती है आपराधिक प्रवृत्ति

<- प्राइवेट जॉब करने वाले म्0 फीसदी लोग जॉब बर्न आउट की चपेट में

- इमोशनल सपोर्ट न मिलने पर किसी भी हद से गुजर सकता है पीडि़त

- सायकोलॉजिस्ट के मुताबिक सिंड्रोम की वजह से बढ़ती है आपराधिक प्रवृत्ति

BAREILLY:

BAREILLY:

'ऑफिस जाने का मूड नहीं है, बेवजह की माथापच्ची से तंग आ चुका हूं। मुझे अकेला रहने दो प्लीज', यदि आपकी फैमिली, कलीग्स या फ्रेंड्स कोई भी इन जुमलों का प्रयोग करे तो सतर्क हो जाएं, क्योंकि इस समय वह अपने आपे में नहीं बल्कि 'जॉब बर्न आउट सिंड्रोम' की चपेट में है। जो व्यक्ति को अंदर ही अंदर निचोड़ रहा होता है। प्रेजेंट में सायकोलॉजिस्ट के पास इस तरह के तमाम केसेज पहुंच रहे हैं, जिनमें करीब 60 प्रतिशत सिंड्रोम की गिरफ्त में हैं।

<'ऑफिस जाने का मूड नहीं है, बेवजह की माथापच्ची से तंग आ चुका हूं। मुझे अकेला रहने दो प्लीज', यदि आपकी फैमिली, कलीग्स या फ्रेंड्स कोई भी इन जुमलों का प्रयोग करे तो सतर्क हो जाएं, क्योंकि इस समय वह अपने आपे में नहीं बल्कि 'जॉब बर्न आउट सिंड्रोम' की चपेट में है। जो व्यक्ति को अंदर ही अंदर निचोड़ रहा होता है। प्रेजेंट में सायकोलॉजिस्ट के पास इस तरह के तमाम केसेज पहुंच रहे हैं, जिनमें करीब म्0 प्रतिशत सिंड्रोम की गिरफ्त में हैं।

क्या है सिंड्रोम

वर्कप्लेस पर जाने के विचार से ही उत्साह में कमी, मानसिक दबाव, तनाव, परेशानी, चिड़चिड़ापन और आत्मबल के खोने का अहसास और उसे नियंत्रित कर पाने में असमर्थता 'जॉब बर्न आउट सिंड्रोम' कहलाता है। सायकोलॉजिस्ट के अनुसार फिजिकल और मानसिक दबाव की वजह से व्यक्ति डिप्रेशन का शिकार होता है। लेकिन जब डिप्रेशन लांग टर्म अथवा हाईलेवल कंडीशन में पहुंचता है उसे जॉब बर्न आउट के नाम से पुकारते हैं। जिस पर यदि समय रहते कंट्रोल न किया गया तो संबंधित व्यक्ति में कुंठा, निराशा, हताशा पनपने से अनकंट्रोल्ड होकर आत्महत्या अथवा हत्या कर डाले, ऐसी संभावना है।

म्0 प्रतिशत हैं चपेट में

प्रेजेंट टाइम में सायकोलॉजिस्ट के मुताबिक जॉब करने वाले करीब म्0 फीसदी लोगों में जॉब बर्न आउट की शिकायत है। आए दिन क्लिनिक में संबंधित व्यक्ति अथवा फैमिली मेंबर्स काउंसलिंग कराने के लिए लोग पहुंच रहे हैं। उनके मुताबिक सिंड्रोम की शिकायत ज्यादातर एडवोकेट, सोशल वर्कर्स, इंजीनियर्स, फिजिशियन, डॉक्टर्स, नर्सेज, कस्टमर सर्विस रिप्रेजेंटेटिव्स, पुलिस, जर्नलिज्म, टारगेट ओरिएंटेड जॉब से जुड़े लोगों में यह ज्यादा प्रभावी होता है। क्योंकि इन वर्क प्लेसेज पर हर दिन क्वालिटी और क्वांटिटी बरकरार रखने का दबाव रहता है। तनाव में रहकर काम करने का माहौल में सिंड्रोम आसानी से लोगों को अपनी जकड़ में ले लेता है।

सिंड्रोम की पहचान

जॉब कोई भी हो, चैलेंज हर जगह होता है। लेकिन जब चैलेंज, को कॉम्पिटीशन के तौर पर लिया जाता है तब सिंड्रोम प्रभावी होने से व्यक्ति में इमोशनल और फिजिकल स्ट्रेस ज्यादा होता है। छोटी सी बात पर चिड़चिड़ापन, बेमन से काम पर करना, जॉब सैटिस्फैक्शन खो देना, क्लाइंट्स, कलीग्स, फ्रेंड्स की शिकायतें करना, अचीवमेंट्स के बावजूद खुशी का अहसास न रहना, जॉब पर सवालिया निशान लगाना, फैमिली मेंबर्स से भी दूरी बनाकर एकांत खोजना इसके प्रमुख लक्षणों में से है।

वजहें

सायकोलॉजिस्ट के मुताबिक जॉब बर्न आउट सिंड्रोम पनपने के कई रीजन हैं।

क्- लैक ऑफ कंट्रोल - कलीग्स को असाइनमेंट बताने में हिचकिचाहट। शेड्यूल डिस्टर्ब होने से अपने असाइनमेंट पूरा करने में असमर्थता और न कर पाने की स्थिति होने से अपनी नियंत्रण क्षमता खो देना।

ख्- लैक ऑफ एक्सपेक्टेशन - जॉब से जो उम्मीदें हों, उनका पूरा न होना। चाहे वह पद हो, सेलरी हो या माहौल।

फ्- लैक ऑफ कंफर्टेबल - ऐसा वर्कप्लेस जहां कलीग्स समेत बॉस राजनीति और पीठ पीछे आलोचना करें। ऑफिस में परफेक्ट टीम न मिलने से कंफर्ट फील न होना।

ब्- मिस मैचिंग वैल्यूज - बॉस और वर्कर्स के वैल्यूज में अंतर। जबरन असाइनमेंट्स को पूरा करने का दबाव बनाना।

भ्- पुअर जॉब मिसफिट - कैपिबिलिटी, क्वालिफिकेशन, इंटरेस्ट और स्किल का पूरी तरह से प्रयोग न कर पाने की फ्रस्टेशन। जिससे काम करते वक्त मानसिक थकान का अहसास।

म्- लैक ऑफ सोशल सपोर्ट - वर्कप्लेस से निकलने के बाद फैमिली अथवा फ्रेंड्स के साथ इमोशनल सपोर्ट न मिलने पर सिंड्रोम का असर तेजी से होता है। जिससे पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ इंबैलेंस्ड हो जाती है।

जॉब बर्न आउट के इफेक्ट्स

क्- कैपिबिलिटी का खत्म हो जाना

ख्- शारीरिक और मानसिक थकान

फ्- वर्क प्रोडक्शन और एफिशिएंसी में कमी

ब्- प्रेशर बढ़ने से डिसीजन एबिलिटी लॉस होना

भ्- आत्मविश्वास में कमी

म्- लाइफस्टाइल में परिवर्तन

7- निराश, हताश और कुंठित रहना

8- अपराधिक मानसिकता का पनपना

9- आत्महत्या अथवा हत्या का विचार

बचाव के तरीके

जॉब बर्न आउट सिंड्रोम की गिरफ्त में होने पर व्यक्ति को इमोशनल सपोर्ट मिल भी जाए तो स्थितियों के बदलने की संभावना है। इमोशनल सपोर्ट में कमी नजर आ रही हो तो व्यक्ति को काउंसलर से मिलकर समस्या का समाधान खोजना चाहिए। सायकोलॉजिस्ट के मुताबिक व्यक्ति इंटरेस्ट के अनुसार जॉब सेलेक्शन, सेल्फ कंट्रोल रखे, एक्सपेक्टेशन के अनुसार जॉब चुने, वैल्यूज के अनुसार असाइनमेंट सेलेक्ट करने की काबिलियत, पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में अंतर रखने का प्रयास करे तो स्ट्रेस हो सकता है, लेकिन जॉब बर्न आउट की कंडीशंस नहीं होंगी।

वर्जन

प्रजेंट टाइम में जॉब में तनाव की स्थिति बनी ही रहती है। लेकिन प्राइवेट जॉब्स में यह स्थिति अक्सर देखी जाती है। करीब म्0 फीसदी लोगों में जॉब बर्न आउट की शिकायत होती है।

डॉ। हेमा खन्ना, सायकोलॉजिस्ट

पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में तालमेल न बैठा पाने से स्थितियां बेहद गंभीर हो सकती हैं। प्राइवेट जॉब कर रहे लोगों को इमोशनल सपोर्ट की अक्सर जरूरत होती है।

सुविधा शर्मा, सायकोलॉजिस्ट