आखिर शुरुआत तो अपने आप से ही करनी होगी
कहीं क ोई गांधी के गांवों में बसने वाले भारत को स्वर्ग बना रहा है तो कोई नन्हें चेहरों पर मुस्कुराहट बांट रहा है। दरअसल शहर के इन लोगों की दिनचर्या में गांधी के सिद्धांत नजर आते हैं। कभी समाज में प्रेम भाव के तौर पर तो कभी सामाजिकता क ो बचाने के रूप में। छोटे-छोटे कामों से ही सही, उन्होंने गांधी जी के पथ को छूने की कोशिश जरूर की है।
ठाकुरदास भास्कर।
और कारवां बनता गया
मैं एडवोकेट हूं। मेरे पास तमाम क्लाइंट्स आते थे। तकरीबन छह साल पहले मेरे पास दो ऐसे क्लाइंट्स आए जिनकी बेटियां स्पेशल बच्चियां थी। जब उनके पेरेंट्स से उनकी पढ़ाई के लिए कहा तो उन्होंने पैसों और स्कूल न होने की मजबूरी जता दी। बात मन को छू गई और पेशा छोड़कर सबसे पहले स्पेशल बीएड में एडमिशन लिया और कोर्स पूरा होते ही एक एनजीओ लार्ड बुद्धा लाइफलाइन के नाम से शुरू किया। खास बात यह है कि एनजीओ के संचालन के लिए कभी भी सरकारी मदद नहीं ली। गांधी जी का साहित्य पढ़ते हुए मुझे समाज सेवा करने की प्रेरणा मिली और इस रास्ते पर चला कारवां खुद ही बढ़ता चला गया।
सबसे पहले खोला स्कूल
एनजीओ ने सबसे पहला काम स्कूल खोलने का किया। स्पेशल गल्र्स के लिए यह स्कूल मंडल स्तर पर निजी क्षेत्र में खुलने वाला पहला रेजिडेंशियल स्कूल है। इसमें 6-14 साल की गल्र्स को एडमिशन दिया जाता है। यहां उन्हें क्लास 1 से 10 तक की एजुकेशन दी जाती है। ग्रामीण क्षेत्र से आने वाली गल्र्स को निशुल्क पढ़ाया जाता है। स्कूल जनवरी से नई बिल्डिंग में शुरू किया जाएगा। एनजीओ जरूरतमंदों को लीगल एडवाइज भी मुफ्त में देती है। इसके लिए एनजीओ में 5 लीगल एडवाइजर्स का पैनल है।
हुमांयू रियासत।
ताकि सबको मिले दो गज जमीन
मैं एसबीआई का कर्मचारी था। स्टूडेंट लाइफ से ही सामाजिक संस्थाओं का मेंबर था पर बहुत एक्टिव नहीं था। धीरे-धीरे सिटी की 125 साल पुरानी अंजुमन को कुछ लोगों के हाथों खराब होते देखा तो रहा नहीं गया। 20 साल पहले पता नहीं इतनी हिम्मत कहां से आई कि अंजुमन को चला रहे लोगों का विरोध किया और इसके सुधार का बीड़ा उठाया। उसके बाद सबसे पहले अंजुमन ने पुलिस को मिलने वाली लावारिस लाशों को सुपुर्द-ए-खाक करना शुरू किया। इससे पहले इन शवों क ो यूं ही कहीं डाल दिया जाता था। यह बिल्कुल भी ठीक नहीं है।
करवाते हैं बेटियों की शादी
उनके कफन आदि का खर्च मैं खुद ही उठाने लगा। उसके बाद तो कहीं भी कोई शव मिलता तो हम वहां मौजूद होते थे। धीरे-धीरे यह संख्या बढऩे लगी। अब अमूमन हर महीने 15-20 शव आ जाते हैं। इसके बाद बेटियों की शादी के लिए जिन्हें मदद जरूरत होती है, उन्हें मुंह मांगी मदद करते हैं। इसके अलावा जिनका आर्थिक तंगी की वजह से इलाज नहीं हो पाता है उन्हें भी हॉस्पिटल ले जाने में पूरी मदद करते हैं। गांधी जी ने तो कुष्ठ रोगी की मदद की थी, जिसके पास क ोई जाता ही नहीं था। तो हम एक आम इंसान होने के नाते कुछ लोगों के चेहरे पर मुस्कुराहट तो ला ही सकते हैं। अब तो मेरी पूरी जिंदगी ही इंसानियत को समर्पित है।
समीर मोहन।
अच्छी शिक्षा और सेहत ही मिशन
घर में फैक्ट्री थी, माता-पिता और दो भाइयों का भरा-पूरा परिवार था पर मेरी सबसे अच्छी दोस्त किताबें थी। और वह भी गांधी वादी साहित्य। इन्होंने मेरे अंदर इतनी करुणा भर दी कि मैंने एलएलबी करते ही घर छोड़ दिया और सेवा कार्य शुरू कर दिए। कुछ दिन आरएसएस में रहा, फिर ग्राम विकास समिति का सदस्य बना। और जब कारवां बढ़ गया तो खुशहाली फाउंडेशन की नींव रख दी। यह फाउंडेशन रूरल और अर्बन दोनों क्षेत्रों में काम करता है। हम सरकार से कोई भी मदद नहीं लेते।
Mission में health, education शामिल
फाउंडेशन के मिशन में रूरल एरियाज में ऑर्गेनिक फार्मिंग की टे्रनिंग, उनकी मार्के टिंग, गावों में फलदार पेड़ लगाना, स्टूडेंट्स के लिए कोचिंग सेंटर्स, महिलाओं को रोजगार प्रशिक्षण और काउंसलिंग शामिल है। वहीं गांव में स्वास्थ्य मित्र प्रशिक्षण भी दिया जाता है। शहर में पर्यावरण के प्रति जनजागरूकता और निर्बल वर्ग के लिए अनौपचारिक शिक्षा की व्यवस्था की गई है। इसके लिए शाम को तकरीबन 200 बच्चों को निशुल्क शिक्षा और बुक्स आदि प्रोवाइड कराई जाती हैं। इसके साथ ही जो स्टूडेंट्स फीस के अभाव में पढ़ाई छोड़ देते हैं उन्हें संस्था ने गोद लिया है। मैं यह सब इसलिए करता हूं ताकि समाज में सामाजिकता बची रहे।
बाबू राम गुडियर।
हौंसले का 'पुल'
बाढ़ आने पर जब शहर से 20 से ज्यादा गांव क ो जोडऩे वाला पुल बह गया तो गांव वाले पीडब्लूूडी ऑफिस के चक्कर काटने लगे। इंजीनियर्स ने कहा कि पहले प्रस्ताव बनेगा, शासन को जाएगा, फिर बजट आएगा, उसके बाद ही पुल बन पाएगा। इसमें कम से कम दो महीने तो लग ही जाएंगे। अब सवाल यह था गांव वाले शहर कैसे आएंगे। सब परेशान थे। फिर न जाने कहां से मेरे अंदर इतना हौंसला आया कि मैंने पुल बनवाने का बीड़ा उठा लिया। केवल पांच दिन में पुल बनकर तैयार हो गया।
32 हजार का आया खर्च
पुल बनाने में सबसे पहले पैसा जुटाने की समस्या आई। कुछ लोग सामने आए पर गांव में इतना पैसा कहां मिलता। मैं एक रिटायर्ड टीचर हूं, तो कुछ शहर के लोगों से मेरे संबंध थे। उनसे बात की तो सब कुछ न कुछ देने क ो तैयार हो गए, फिर तो पता ही नहीं चला कि कब यह पुल बनकर तैयार हो गया। खास बात यह है कि मैंने अब तक जिस काम के लिए हौंसला दिखाया है, उस हौंसले को अंतर्मन से हिम्मत मिली है और वह सबके सामने आता गया। ऐसा तब भी हुआ था, जब मैंने गांव में पहली बार स्कूल शुरू किया था। बाद में मैं ही उस स्कूल का प्रिंसिपल बनकर रिटायर हुआ।
पुष्पालता गुप्ता
Special children के लिए special काम
पति की मौत के बाद खुद को संभालना आसान नहीं था पर बच्चों के बीच मुझे शांति मिलती थी। दिल्ली में रहते हुए भी मैं स्पेशल बच्चों के लिए काम करती थी। जब मेरे हसबैंड नहीं रहे तो मैं एक सपना लेकर बरेली आई कि यहां के स्पेशल बच्चों की मदद करूंगी। इसी सोच के साथ मैंने दिशा विद्यालय खोल दिया। 15 साल पहले जब बरेली में स्पेशल बच्चों के लिए पहला स्कूल खोला तो शुरू में बहुत अच्छा रेस्पॉन्स नहीं मिला लेकिन धीरे-धीरे वहां बच्चे आने लगे।
घर पर भी रहती हैं बच्चियां
स्कूल में क्लास 1 से 8 तक की क्लासेज लगाई जाती हैं। स्कूल डे बोर्डिंग होने की वजह से बच्चे दिन भर तो स्कूल में ही रहते हैं। वास्तव में नम्रता से किसी को भी जीता जा सकता है, यह मैंने गांधी जी से ही सीखा है। बस इसी फॉर्मूले पर चली और स्पेशल बच्चों को समझने में मुझे बहुत हेल्प मिली। स्कूल से पास होने के बाद कई बच्चियां पढ़ाई छोड़ देती हैं। ऐसे में जो मेधावी हैं, मैं उन्हें अपने घर पर ही रखकर हायर एजुकेशन दिलवा रही हूं। इस समय मेरे घर पर रही रजनी क्लास 9 में अल्मा मातेर में पढ़ रही है और दुलेखा अभी दिशा में ही क्लास 7 की स्टूडेंट है।
Demand में है गांधी literature
बरेलियंस में गांधी लिट्रेचर की भी खास डिमांड है। यूं तो सिटी में केवल एक ही सर्वोदय बुक स्टॉल है। रेलवे जंक्शन पर चलने वाले इस स्टॉल को एसके मिश्रा चलाते हैं। एकमात्र स्टॉल होने की वजह से गांधी साहित्य की यहां काफी ज्यादा डिमांड रहती है।
सत्य के प्रयोग है best seller
सिटी में यूं तो गांधी साहित्य की हर किताब की मांग हमेशा होती है। पर सबसे ज्यादा डिमांड मोहनदास करमचंद गांधी की आत्मकथा 'सत्य के प्रयोगÓ की ही रहती है। आंकड़ों के अनुसार एक माह में तकरीबन 25-30 प्रतियां आसानी से सेल हो जाती हैं। वहीं 'मेरे सपनों का भारत', 'बापू की कारावासÓ कहानी की भी सेल अच्छी होती है। गांधी साहित्य की सबसे महंगी किताब भी 'बापू की कारावास' कहानी ही है। इसकी कीमत 160 रुपए है। एसके मिश्रा ने बताया कि कई बार तो 'सत्य के प्रयोगÓ की प्रतियां खत्म हो जाने पर डिमांड लिखनी भी पड़ती है।
Students हैं buyer
गांधी लिट्रेचर लेने वालों में सबसे ज्यादा स्टूडेंट्स ही शामिल होते हैं। यह कह सकते हैं कि जुलाई व अगस्त में जब सिटी के कॉलेजेज में न्यू स्टूडेंट्स आते हैं, उस समय गांधी साहित्य की सेल काफी बढ़ जाती है। एसके मिश्रा ने बताया कि दरअसल मैनेजमेंट के स्टूडेंट्स को कई बार उनके टीचर्स गांधी साहित्य पढऩे की सलाह देते हैंै, तब वह इसे खरीदने आते हैं।