बरेली (ब्यूरो)। विश्व के प्राचीनतम वाद्य यंत्रों में से एक बांसुरी संगीत के सुरों की खान है। एक विशेष तरह के बांस से तैयार होने वाली बांसुरी जब साधक के होंठों से लगती है तो अपनी मधुर ध्वनि से इंसान तो क्या बेजुबान को भी मोहित कर लेती है। हमारे देश में तो बांसुरी सिर्फ सुरों तक सीमित न होकर आध्यात्म,भक्ति और संगीत की साधना के जरिए भगवान तक को पाने का साधन है। बांसुरी भगवान कृष्ण का साज है, श्रंगार है और उनका प्रतिरूप भी है। भगवान कृष्ण के जरिए ही यह बांसुरी देश के करोड़ों घरों तक पहुंचती है। अपने बच्चे को कान्हा रूप में देखने वाली हर मां उसके हाथ में बांसुरी ही थमाती है। एक खास तरह के बांस की लकड़ी कैसे बांसुरी बन जाती है, कहां बनती है और कौन इसे बनाते हैं, दैनिक जागरण आई नेक्स्ट की यह स्टोरी आपकी ऐसी ही जिज्ञासाओं का समाधान है।

पीलीभीत है बांसुरी की खान
प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर तराई क्षेत्र का छोटा सा भूभाग पीलीभीत बरेली मंडल का सबसे अधिक वन क्षेत्र वाला जिला है। यह जिला यूं तो प्राचीन काल से ही बाघों की चहलकदमी से जाना जाता है, पर बीते सौ साल से अधिक समय से यहां की पहचान बांसुरी भी रही है। पीलीभीत की बनी बांसुरी का अतीत काफी सुनहरा रहा है। विश्वविख्यात बांसुरी वादक हरि प्रसाद चौरसिया से लेकर पंडित राजेंद्र प्रसन्ना तक के होठों पर विराज चुकी यहां की बांसुरी की पहचान देश के साथ ही विदेशों तक में रही है। आज मॉडर्न संगीत और मॉडर्न म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स के दौर में भी इस शहर से हर साल लाखों बांसुरी पूरे देश पहुुंचती हैं। विश्व के कई दूसरे देशों तक में यहां से बांसुरी निर्यात होती हैं और इस शहर का नाम रोशन करती हैं।

नबी एंड संस है सबसे पुरानी फर्म
पीलीभीत को बांसुरी के शहर के रूप में पहचान दिलाने का काम जिसने किया, वह है नबी एंड संस फर्म। बांसुरी बनाने के काम के लिए रजिस्टर कराई गई यह फर्म इस शहर की सबसे पुरानी फर्म है। बांसुरी तो यहां इस फर्म के रजिस्टर होने से पहले ही बनने लगी, पर फर्म बनने के बाद यह काम यहां संगठित कुटीर उद्योग के रूप में होने लगा। इसके बाद यहां हजारों परिवार बांसुरी बनाने के काम से जुड़ गए और इसके जरिए उनके पूरे परिवार को घर में ही रोजगार मिलने लगा। वर्तमान में इस फर्म को संभाल रहे मोहम्म्द इकरार बताते हैं कि उनके दादा जी ने सबसे पहले पीलीभीत में बांसुरी बनाने का काम शुरू किया। उन्होंने ताउम्र यही काम किया और दूसरे लोगों को भी इससे जोड़ा। उनके बाद वालिद ने यह काम संभाला। चूंकि वालिद उस दौर में अच्छे पढ़े लिखे तो उन्होंने इस काम प्रोफेशनल तौर पर करने के लिए वर्ष 1953 में नबी एंस संस नाम से फर्म रजिस्टर कराई। इस फर्म ने ही पीलीभीत को बांसुरी के शहर के रूप में पहचान दिलाई। इकरार अहमद बताते हैं कि बांसुरी बनाने का काम आज उनकी चौथी पीढ़ी कर रही है। शहर में कई ऐसे परिवार हैं जो पीढिय़ों से बांसुरी बनाने के काम से ही जुड़े हैं।

आसाम से आता है बांस
पीलीभीत में जंगल होने के बाद भी यहां बांसुरी वाला बांस पैदा नहीं होता है। बिना गांठ वाले बांस से ही बांसुरी बनती है और यह बांस आसाम के सिल्चर शहर से पीलीभीत पहुंचता है। कारीगरों, कारोबारियों की सबसे बड़ी समस्या आज इसी बांस की आपूर्ति को लेकर है। बताते हैं पहले जब देश में छोटी रेल लाइन का नेटवर्क था तो आसाम से सीधे बांस की रैक पीलीभीत पहुंच जाती थी। इससे पीलीभीत में बांसुरी का काम खूब फला फूला। बाद में जब धीरे-धीरे रेल लाइन ब्राडगेज में तब्दील होने लगी तो आसाम से कनेक्टिविटी खत्म हो गई। इसके बाद बांस की सीधे सप्लाई भी रुक गई। वर्तमान में वहां बांस की खरीद पर सबसे पहले पांच प्रतिशत की दर से जीएसटी का भुगतान करना होता है। इसके बाद बांस को ट्रक से यहां लाने पर उसकी कीमत से ज्यादा भाड़ा और उस पर भी जीएसटी देना पड़ता है। इससे बांस की कीमत कई गुना बढ़ जाती है और इसका असर बांसुरी उत्पादन और सप्लाई पर पड़ता है। वर्तमान में बांसुरी का काम सिमटने के पीछे एक बहुत बड़ा कारण यही समस्या है।

इन शहरों को सप्लाई
मथुरा, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, राजस्थान, महाराष्ट्रा, अहमदाबाद, भोपाल, हैदराबाद, कर्नाटका, चेन्न्ई, आदि शहरों के अलावा श्रीलंका, अमेरिका, फ्र ांस, डेनमार्क आदि देशों में भी पीलीभीत से बांसुरी सप्लाई होती है।

ओडीओपी से उम्मीद
लोकल उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए प्रदेश सरकार की वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट स्कीम ओाडीओपी के तहत बांसुरी को पीलीभीत का लोकल उत्पाद घोषित किया गया। इसके बाद शासन स्तर से इस उत्पाद को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं बनाई गई और इनका लाभ लोकल कारीगरों तक पहुंचाने का भी प्रयास हुआ, पर इसका कोई पॉजिटिव रिस्पांस ग्राउंड पर दिखा नहीं। वर्तमान में ओडीओपी के तहत पीलीभीत के 125 कारीगर रजिस्टर हैं। इन कारीगरों को अब शासन स्तर से ही आयोजित प्रशिक्षण कार्यक्रम में प्रशिक्षण देने की तैयारी है। प्रशिक्षण पा चुके कारीगरों को बेहतर टूल किट और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी।

दो सौ घरों तक सिमटा काम
वर्तमान में तराई का यह कुटीर उद्योग बहुत अच्छी पोजिशन में नहीं है। बताते हैं कि पहले एक हजार से अधिक घरों में बांसुरी बनाने का काम होता था, पर अब यह सिर्फ 200 चौखटों तक सिमट कर रह गया है। शेष कारीगरों ने अपनी रोजीरोटी के लिए दूसरा काम अपना लिया है। लोकल कारीगर बताते हैं कि चंद बड़े कारोबारी तो इस काम से फायदा कमा लेते हैं, पर उन्हें कुछ नहीं बचता है। बड़े कारोबारी तो बांसुरी को विभिन्न देशों में निर्यात करके भी अच्छा लाभ कमा लेते हैं। वह कहते हैं कि बांसुरी बनाना उनका पुश्तैनी कार्य है, जो पीढिय़ों से चला आ रहा, इस कारण छोड़ भी नहीं पा रहे हैं। फिर कोई दूसरा व्यवसाय करने का तजुर्बा भी तो नहीं है।

पांच लाख तक होती थी सप्लाई
बासुरी बनाने के काम से जुड़े कारोबारी बताते हैं कि पहले बांसुरी की मांग देश भर से आती थी। इससे सालाना औसतन पांच लाख बांसुरी की सप्लाई यहां से हो जाती थी। बांस के दाम चढ़े तो कारोबारियों ने कम माल मंगवाना शुरू कर दिया। इसके साथ ही कोरोना काल में बिगड़ी इस काम की स्थिति सुधर नहीं सकी। अब सालाना औसतन ढाई लाख बांसुरी ही यहां से सप्लाई हो पा रही है।

बांस उगाने का भी प्रयास
बांसुरी के लिए आसाम से आने वाले बांस की खेती को पीलीभीत में करने का भी प्रयास हुआ। दो वर्ष पहले बैंबू मिशन के अंतर्गत यहां के ललौरीखेड़ा ब्लाक एरिया में पांच हेक्टेयर जमीन में 3125 बांस के पौधे रोपे गए थे। इन पौधों की देखरेख सही से नहीं होने के कारण धीरे-धीरे यह पौधे सूख गए। कारीगर बताते हैं कि अभियान चलाकर तराई की इस जमीन पर बिना गांठ वाले बांस की खेती को बढ़ावा दिया जाए तो दोहरा लाभ होगा। खेती का नया रास्ता बनेगा और बांसुरी कारीगरों के लिए बांस की उपलब्धता आसान होगी।

पीलीभीत में बांसुरी ओडीओपी स्कीम में शामिल है। शासन स्तर से ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं कि जिससे बांसुरी कारीगरों को लाभ हो। वर्तमान में विभाग के पास कुल 130 कारीगरों का विवरण पंजीकृत है। अन्य कारागीरों का भी पंजीकरण करा रहे हैं। जल्दी ही कारीगरों के लिए एक ट्रेनिंग प्रोग्राम आयोजित होने वाला है। इसमें ट्रेनिंग पाने वाले कारीगरों को टूल किट भी उपलब्ध कराया जाएगा।
सुनील कुमार, डिप्टी कमिश्नर उद्योग

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