प्रयागराज (ब्यूरो)। बेली गांव के रहने वाले राजेश सोनकर पेशे से टीचर हैं। उनका बेटा दो किमी दूर एक कांवेंट स्कूल में पढ़ता है। पिछले साल तक उसके ट्रांसपोर्टेशन का 1500 रुपए लगता था। इस साल फीस बढ़ाकर दो हजार रुपए कर दी गई है। इसकी जानकारी होने पर उन्होंने स्कूल मैनेजमेंट से विरोध जताया तो वहां से टका सा जवाब मिला। कहा कि आप खुद अपने बच्चे को स्कूल पहुंचा सकते हैं लेकिन फीस कम नही होगी।
हर साल बढ़ जाती है फीस
लगभग 80 फीसदी स्कूलों के पास ट्रांसपोर्टेशन की सुविधा है। इनमें से कुछ स्कूलों के पास खुद की बसें है तो कुछ ने ट्रांसपोर्टर से अनुबंध कर रखा है। इनके जरिए बच्चों को घर से स्कूल और स्कूल से घर ले जाया जाता है। पैरेंट्स का कहना है कि स्कूल वाले हर साल ट्रांसपोर्ट की फीस में बढ़ोतरी कर देते हैं। यह बढ़ोतरी बीस से तीस फीसदी तक होती है। इस बार भी 25 से 30 परसेंट तक बसों का भाड़ा बढ़ा दिया गया है।
दूरी से नही होता मतलब, एक जैसी फीस
कई बार देखा जाता है कि स्टूडेंट का घर स्कुल से कुछ दूरी पर होता है। लेकिन इसके बावजूद स्कूल वाले फिक्स चार्ज वसूलते हैं। इसमें कोई नरमी नही बरती जाती है। यहां तक कि स्कूल की ओर से लगाई गई अप्पे और विक्रम का शुल्क भी एक से डेढ़ हजार से कम नही होता है। आमतौर पर किसी स्कूल में पढऩे वाले बच्चे तीन से चार किमी रेडियस के होते हैं। बहुत दूर से आने वाले बच्चों की संख्या काफी कम होती है।
कमीशन के खेल में पैरेंट्स फेल
पैरेंट्स डायरेक्ट बसों के संचालकों को बच्चों को लाने और ले जाने की परमिशन नही देते हैं। यही कारण है कि ट्रांसपोर्टर्स और स्कूल वालों के बीच डील होती है। जिसमें तय होता है कि प्रत्येक बच्चे के हिसाब से कमीशन लिया जाएगा। यही कारण है कि बसों का भाड़ा हर साल बढ़ जाता है और इसका खामियाजा पैरेंट्स को झेलना पड़ता है। अगर पैरेंट्स सीधे ट्रांसपोर्टर से डील करते हैं तो भाड़ा कम देना पड़ता है लेकिन इसमें बच्चे की सुरक्षा की गारंटी स्कुल नही लेता है जिसका नुकसान पैरेंट्स को होता है।
पैसे लेने के बावजूद खतरे में रहती है जान
मोटी रकम देने के बावजूद बच्चों की जान सेफ नही रहती है। पिछले दिनों आरटीओ की रिपोर्ट में बातया गया था कि स्कूलों में लगे कई वाहनों की फिटनेस रिपोर्ट सही नही है। उनका फिटनेस हुआ ही नही है। कई वाहन रिजेक्टेड है फिर भी इनमें बच्चों को ढेाया जा रहा है। यह वाहन कहीं से भी सुरक्षा मानको को पूरा नही करते हैं। बावजूद इसके धड़ल्ले से वाहन मानक से अधिक बच्चों को ढोते हैं। जिसकी वजह से अक्सर स्कूली वाहन दुर्घटना का शिकार होते हैं जिसमें बच्चों के जान माल का नुकसान होता है।
पैरेंट्स को ट्रांसपोर्टेशन के नाम पर हर साल अधिक पैसा देना पड़ता है। इसकी वजह से उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो जाती है। लेकिन कोई राहत नही मिलती है। इस पर भी लगाम लगनी चाहिए।
अरुण अग्रहरि
यह सब खेल कमीशन का है। ट्रांसपोर्टेशन और स्कूल की सांठगांठ के चलते हर साल बीस से तीस फीसदी तक वाहन का भाड़ा बढ़ जाता है। इसका असर आम आदमी की जेब पर पड़ता है।
मनीष कुमार गुप्ता
जिनके दो से तीन बच्चे हैं उनकी सैलरी का आधा हिस्सा हर महीने फीस और ट्रांसपोर्टेशन में खर्च हो जाता है। सभी पैरेंट्स के पास साधन नही होता कि वह बच्चों को स्कूल छोड़वा दें।
नेहा श्रीवास्तव