प्रयागराज (ब्‍यूरो)। शंकरगढ ब्लाक के बरगढ गांव की रहने वाली दुइजी 45 साल की उम्र में जूही गांव में आकर बस गई थी। छह बेटियों और चार बेटियो को पालने के लिए उन्होंने यह कदम उठाया। यहां आने पर वह पहाड़ों पर पत्थर तोडऩे का काम करने लगी। उसने देखा कि ठेकेदार मजदूरों के साथ गलत व्यवहार करते हैं। पूरी मजदूरी नही देते, मांगने पर मारपीट करते हैं। दुइजी से नही रहा गया और उसने इसके खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी। ऐसे में ठेकेदार उसके विरोध में आ गए, लेकिन वह नही झुकी। उसने इसके लिए मजदूरों को संगठित करना शुरू कर दिया।

25 साल से दूसरों के हक की लड़ाई लड़ रही दुइजी अम्मा
एक दुर्घटना में हो गई दिव्यांग, नही मिली सरकारी सहायता
2005 में शांति के नोबल पुरस्कार के लिए हो चुकी है नामित

लीज के लिए सालभर किया संघर्ष
इस बीच दुइजी को महिला समाख्या संस्थान का साथ मिला। संगठन के साथ मिलाकर दुइजी ने मजदूरों को उनका दिलवाने की लड़ाई शुरू की। उनका कहना था कि मजदूरों को पहाड़ का पट््टा दिया जाए। जिससे वह ठेकेदारों के शोषण से बचकर खुद आत्मनिर्भर बन सकें। लेकिन यह आसान नही था। इसके लिए उसे इलाहाबाद कलेक्ट्रेट से लेकर लखनऊ तक चक्कर काटने पड़े। कई बार एसडीएम और डीएम कार्यालय का घेराव करना पड़ा। सालभर चली इस लड़ाई में उसके साथ सैकड़ों महिलाएं खड़ी हो गईं।
एसडीएम के कार्यालय का तोड़ दिया ताला
दुइजी बताती है कि जूही और आसपास के गांव में रहने वाले आदिवासियों के पास रोजगार का कोई साधन नही था। अक्सर वह खेती के लिए लोन लेते थे और जमा नही कर पाने पर प्रशासन उन पर वसूली का दबाव डालता था। पुलिस फोर्स और अमीन आकर मजदूरों को घर से जबरन उठा ले जाते थे। इस बदसुलूकी के विरोध में दुइजी ने हजारों महिलाओं को एकत्र कर एसडीएम कार्यालय पर हल्ला बोल दिया था। दोपहर बारह बजे से चार बजे तक एसडीएम को बुलवाने की मांग की जाती रही। लेकिन वह नही आए। एक कमरे में मजदूरों को बंद किया गया था। जब दुइजी से नही रहा गया तो शाम चार बजे उन्होंने महिलाओं के साथ मिलकर कमरे का ताला तोड़ दिया और मजदूरों को आजाद करा लिया। इस घटना के बाद प्रशासन की नींद खुली और दुइजी के नाम से सीधी टिकट पहाड़ को लीज पर दे दिया गया। जिससे मजदूर आत्मनिर्भर बन सकें।
करोड़ों मिले लेकिन आज भी गरीब है दुइजी
इस घटना के बाद चारों ओर दुइजी प्रसिद्ध हो गई। लोग उसे प्यार से दुइजी अम्मा पुकारने लगे। लखनऊ और दिल्ली तक शासन और प्रशासन में उसकी बात सुनी जाने लगी। उसके नाम से लाखों-करोड़ों की लीज और पट््टे संस्थान के पदाधिकारियों ने लिए लेकिन दुइजी को कुछ नही मिला। उसे केवल रवन्ने का पैसा मिलता था जिससे उसका परिवार चलता था। लेकिन संस्थान के बाकी लोग इसका फायदा उठाते रहे।
नही रुका कारवां, चलता रहा संघर्ष
एक लड़ाई जीतने के बाद भी दुइजी अम्मा नही मानी। वह महिलाओं के सम्मान के लिए कोरांव, बड़ोखर, चित्रकूट, वाराणसी, लखनऊ तक लडऩे गई। उसे पता चलता कि किसी महिला को पुरुष द्वारा मारा पीटा गया है। तो वह सबक सिखाने चली जाती थीं। गांव में स्कूल नही था। लंबी लड़ाई के बाद आदिवासी बच्चों को शिक्षा मिलने लगी और स्कूल शुरू हुआ। दस साल पहले एक अमीन मजदूर को जबरन ले जा रहा था। उसका कहना था कि सिचाई के पानी का टैक्स उसने नही अदा किया। मजदूर का कहना था कि फसल खराब हो गई, इसलिए बकाया माफ किया जाए। पता चलने पर दुइजी अम्मा सहित पहुंची अन्य महिलाओं ने अमीन से मजदूर को जबरन छुड़वाया। इस मामले में तत्कालीन विधायक उदयभान करवरिया को भी हस्तक्षेप करना पड़ा था।
सम्मान में छिपी हैं पुरानी स्मृतियां
दुइजी अम्मा को उनके कार्यों को लिए दर्जनों सम्मान मिले हैं। लेकिन रखरखाव के अभाव में सब टूटफूट गए हैं। 2005 में उन्हें शांति के नोबल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। बताती हैं कि उनके पास हवाई जहाज का टिकट भी आया था लेकिन अपने गदेलों (बच्चों) को छोड़कर जाने की उन्हें हिम्मत नही हुई। क्योंकि उनके पेट भरने एकमात्र जरिया वही थीं। सरकार द्वारा पत्थर तोडऩे पर रोक लगाने के बाद पहाड़ की लीज भी समाप्त हो गई। कुछ साल उनके नाम गांव के स्कूलों के मिड डे मील का टेेंडर मिला था लेकिन बाद में वह भी सरकार ने स्कूलों को सौंप दिया। किसी तरह पाल पोसकर उन्हेंने अपने बच्चों को बड़ा किया है। उन्होंने कभी भी एक रुपया गलत तरीके से नही कमाया है। सपा सरकार में कन्या सुरक्षा सम्मान मिला था। इसके अलावा मदर टेरेसा और अवध सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। महिला एवं बाल विकास की ओर से उन्हें प्रशस्ति पत्र भी प्रदान किया गया था।
दिव्यांग हैं फिर भी ठेके के खिलाफ जारी है लड़ाई
पांच साल पहले दुइजी का कूल्हा एक दुर्घटना में फ्रैक्चर हो गया। इसके बाद वह चलने-फिरने से मजबूर हो गईं। इसके बाद संगठन भी तितर बितर हो गया। फिर भी दुइजी महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय पर शांत नही हुईं। गांव में भगवान शिव के मंदिर के बगले नियम विरुद्ध खोले गए शराब के ठेके खिलाफ वह आवाज उठा रही हैं। वह कहती हैं कि गांव के मजदूर अपनी कमाई इस ठेके पर उड़ा देते हैं। शराबियों की हरकतों से अंधेरा होने के बाद गांव की महिलाएं शौच को जाने से डरती हैं। शराबी अपनी पत्नियों को पैसे के लिए मारते पीटते हैं। जबकि ठेका किसी दूसरे गांव के नाम से है लेकिन यहा अवैध रूप से खुला है। अगर प्रशासन इसको नही हटाएगा तो एक दिन दुइजी ठेके के सामने आत्मदाह कर लेंगी।
दुइजी को भी मिले सम्मान
जूही गांव के प्रधान दिनेश मिश्रा बताते हैं कि दुइजी के पास रहने को छत नही थी। हाल ही में मुख्यमंत्री आवास योजना स्पेशल के तहत उसे घर मिला है। बीपीएल कोटे से अनाज मिलता है और पांच सौ रुपए पेंशन। इससे उसका और परिवार का पेट नही भरता है। सरकार को उसकी लोकप्रियता और समाजसेवा के कार्यों को देखते हुए उसका पुनर्वास करना चाहिए। उसे दिव्यांग प्रमाण पत्र और बैटरी वाली ट्राइसाइकिल की आवश्यकता है। गांव में उसके नाम से सड़क, स्कूल या स्मारक बनवाया जाना चाहिए। गांव के अन्य आदिवासी भी यही मांग कर रहे हैं।