सिटी में हॉकी को लेकर नहीं है अच्छी सुविधाएं

खिलाडि़यों को प्रैक्टिस के लिए नहीं मिलता है अच्छा प्ले ग्राउंड

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PRAYAGRAJ: टोक्यो ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम से लोगों को बड़ी उम्मीदें थी। इंडियन पुरूष हॉकी टीम ने भी अपना शानदार प्रदर्शन करते हुए देश के लोगों को निराश नहीं किया। ओलंपिक भले ही खत्म हो गया। लेकिन एक सवाल फिर जरूर उठने लगा है। आखिर नए खिलाड़ी ज्यादा संख्या में क्यों नहीं निकल रहे हैं। जबकि स्पो‌र्ट्स में करियर को लेकर संभावनाएं बनी हुई है। उसके बाद भी हॉकी जैसे राष्ट्रीय खेल में अच्छे खिलाडि़यों की लगातार कमी बनी हुई है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कि खिलाडि़यों को बेहतर सुविधाएं नहीं मिल पाती है। जिसके कारण खिलाड़ी हॉकी जैसे खेल में लंबा करियर बनाने के पहले ही हार मान लेते है। प्रयागराज में ही बड़ी संख्या में खिलाड़ी करियर में लंबी छलांग नहीं लगा पाते है।

आज तक नहीं बन पाया एस्टोटर्फ फील्ड

इंटरनेशनल हॉकी मैच एस्टोटर्फ फील्ड पर खेला जाता है। ओलंपियन दानिस मुजतबा बताते है कि 2015 में सिटी के हॉकी खिलाडि़यों के इंटरनेशनल लेवल की प्रैक्टिस के लिए एस्टोटर्फ फील्ड बनाने की मंजूरी हुई थी। लेकिन आज तक एक भी फील्ड तैयार नहीं हो सकी। ऐसे में सिटी के हॉकी खिलाड़ी सुविधाओं के अभाव में आगे तक नहीं बढ़ पाते है। जबकि डिस्ट्रिक्ट में कई ऐसे खिलाड़ी है। जिनके अंदर वो क्षमता है कि वह नेशनल और इंटरनेशनल स्तर पर बेहतर परफार्मेस दे सकें।

एस्टोटर्फ और मिट्टी के ग्राउंड में है अंतर

हॉकी कोच उमेश खरे बताते है कि एस्टोटर्फ ग्राउंड और मिट्टी के ग्राउंड में बड़ा अंतर है। मिट्टी के मैदान पर खिलाड़ी जब गेंद को हिट करता है, तो यदि वह 20 की स्पीड में होती है। उतने ही तेज से जब एस्टोटर्फ ग्राउंड पर हिट करता है, तो बॉल 80 की स्पीड में जाती है। एस्टोटर्फ ग्राउंड स्पंजिंग होता है। जबकि मिट्टी के ग्राउंड में पैर धसता है। ऐसे में जब स्टेट या नेशनल खेलने भी सिटी का खिलाड़ी जाता है, तो वह दूसरे स्टेट के खिलाडि़यों के मुकाबले इंडोरेश और स्पीड के बीच बेहतर बैलेंस नहीं बना पाता है। जबकि दूसरे स्टेट के खिलाड़ी हमारे खिलाडि़यों से कम होते हुए भी सिर्फ बैलेंस नहीं बना पाने के कारण बाहर हो जाते है। सिटी के कुछ बच्चें ही स्पो‌र्ट्स कालेज में एडमिशन के लिए ट्रायल दे पाते है। वह भी इसी कारण से बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाते है। जिसके कारण उन्हें बाहर होना पड़ता है।

गोलकीपर की किट भी नहीं पर्याप्त

सिटी के कई ऐसे हॉकी टीमें है, जिनमें गोलकीपर के पास किट नहीं है। क्योकि गोलकीपर की किट की शुरुआत ही 10 से 15 हजार रुपए में होती है। ऐसे में कई स्कूल इसके लिए भी फंड नहीं जुगाड़ कर पाते है। साथ ही कोच की कमी भी लगातार बनी हुई है। डिस्ट्रिक्ट एसोसिएशन के पास भी पर्याप्त कोच नहीं है। खिलाडि़यों ने नेशनल और इंटरनेशनल स्तर की कोचिंग के लिए जरूरी है कि उस स्तर के कोच भी हो। जिससे टेक्नीक और ट्रेनिंग दोनों बेहतर हो सके।

स्कूल ओपेन में करीब 80 खिलाड़ी है पहुंचते

डिस्ट्रिक्ट में हॉकी के स्कूल ओपेन ट्रायल में करीब 80 खिलाड़ी ही पहुंच पाते है। ये प्रतियोगिता अंडर 14 और अंडर 19 में होती है। इसके साथ ही जूनियर नेहरू हॉकी टीम में भी सिटी के खिलाड़ी जाते है। हालांकि इसके अलावा अन्य बड़े खेलों में कम ही खिलाड़ी पहुंच पाते है।

गरीब बच्चें ही हॉकी में आते है

हॉकी जैसे खेल में गरीब घरों के बच्चे ही पहुंचते है। अपर मीडिल क्लास के बच्चों की दिलचस्पी हॉकी में कम दिखती है। हालांकि ये बच्चें और इनके पैरेंट्स स्पो‌र्ट्स की प्रैक्टिस के लिए पूरा समय देते है। लेकिन जहां तक सुविधाओं की बात है, तो उनका इन खिलाडि़यों के पास अभाव होता है।

- हॉकी जैसे खेल के लिए जरूरी है कि डिस्ट्रिक्ट में कम से कम एक एस्टोटर्फ फील्ड हो। जिससे खिलाड़ी उस पर प्रैक्टिस कर सके। तभी वह आगे तक खेल पाएंगे।

उमेश खरे, कोच

- खिलाडि़यों को बेहतर ट्रेनिंग जरूरी है। इसके लिए कम से कम एक नेशनल व इंटरनेशल लेवल की ट्रेनिंग देने वाले कोच की जरूरत है। जिससे वह नई टेक्निक खिलाडि़यों को समझा सके।

अकील अब्बास, कोच