प्रयागराज (ब्यूरो)। दैनिक जागरण आई नेक्स्ट से बातचीत में विशाल ने बताया कि उस दिन फिर मुझे नींद नही आई। हम टर्नोपिल के एक फ्लैट में रहते थे। दोपहर में हम खाने पीने का सामान लेने सुपर मार्केट गए तो वहां बहुत लंबी लाइन लगी थी। कई घंटे बाद नंबर आया तो पता चला कि सबकुछ खत्म हो चुका था। बहुत मुश्किल से 15 दिन का राशन मिला। इसे हम लेकर फ्लैट आ गए। सोचा कि किसी तरह करीब के पोलैंड बार्डर पर चले जाएं तो पता चला कि ट्रेन और बसें बंद कर दी गई हैं। टर्नोपिल के नजदीक स्थित ईवानों और विनेशिया शहर में बमबारी हो रही थी। दो दिन बाद किसी तरह हिम्मत करके हम लोग बस के जरिए पोलैंड के लिए रवाना हो गए। क्योंकि यह हमारे करीब स्थित था।
लाइन देखकर हार गए हिम्मत
पोलैंड बार्डर के करीब पहुंचे तो बताया गया कि वापस लौट जाइए। यहां पचास किमी लंबा जाम लगा है। साथ बीस किमी लंबी सभी देशों के छात्रों की लाइन है। इसलिए पैदल चलना होगा। यह सुनकर हमारे होश उडु गए और हमने 26 फरवरी को वही से रोमानिया बार्डर जाने का फैसला किया। यहां पर गए तो देखा कि 1000 छात्रों की लंबी लाइन लगी है। किसी तरह हम भी बढऩे लगे। यहां पर इंडियन एंबेसी में कोई मौजूुद नही था। केवल गार्ड थे। माइनस पांच डिग्री तापमान पर एक चादर बिछाकर मैं और मेरा दोस्त बैठ गए। हम भगवान को याद कर रहे थे कि तभी बार्डर का गेट खुला और इंडियंस छात्रों को बुलाया जाने लगा। हम धक्का मुक्की करके अंदर चले गए। अब हम सेफ थे लेकिन घर पहुंचने का सवाल सबसे बड़ा था।
दो दिन तक करना पड़ा इंतजार
हमें बताया गया कि एयरपोर्ट ले जाया जाएगा। बस में सवार किया गया लेकिन एयरपोर्ट ले जाने के बजाय समीप के एक शेल्टर में रोक दिया गया। यहां पहले स इंडिया के 350 छात्र मौजूद थे। दो दिन तक फ्लाइट आने का इंतजार किया गया। एक मार्च की सुबह हम सो रहे थे तब एनाउंस हुआ कि इंडिया के लिए फ्लाइट जा रही है लेकिन इसमें केवल 25 लोगों के लिए सीट बची है। यह सुनकर होश उड़ गए। क्योंकि 350 छात्रों के जाने का सवाल था। हमने बिना देरी किए बिना जूता चप्पल पहने बैग लेकर टिकट विंडो की तरफ दौड़ लगा दी। लगा कि यह रेस हार गए तो घर कैसे पहुंचेंगे। ईश्वर की कृपा से रास्ते बनते गये और आज तीन बजे प्रयागराज पहुंचे। यहां से मेरे बड़े भाई रवि कुमार ने पिक किया और शाम 6 बजे जंघई बाजार के घर में पहुंचे। जहां पिता अशोक कुमार और माता ने नम आंखों से मुझे गले लगा लिया।