प्रयागराज (ब्‍यूरो)। गांधी हिटलर को एक पत्र लिखते हैं। इस पत्र की भाषा से साफ पता लगता है कि गांधी को राजसत्ता का जरा सा भी भय नहीं था। उनके अनुसार भय और प्रीति एक साथ संभव नहीं है। घृणा और प्रतिहिंसा गांधी में उसके प्रति भी नहीं, जिससे वे लड़ रहे हैं। वे बुरे से बुरे व्यक्ति में अच्छाई ढूंढते हैं। प्रेमचंद भी ऐसे ही हैं, हृदय परिवर्तन के टूल का प्रयोग प्रेमचंद द्वारा उसी अच्छाई की संभावना की तलाश है। यह वही परंपरा है जो भारतीय कथा परंपरा में, पंचतंत्र में, हितोपदेश में है। ये बातें सोमवार को डॉ आशुतोष पार्थेश्वर ने कहीं। वह गांधी विचार एवं शांति अध्ययन संस्थान, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रेमचंद जयंती के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम गांधी संगत: प्रेमचंद और गांधी, विषय पर मुख्य वक्ता के रूप में अपनी बात रख रहे थे।

गांधी जी के आंदोलन को कलम से साथ दे रहे थे प्रेमचंद्र
गांधी और प्रेमचंद की 1935 में, वर्धा में हुई भेंट का जिक्र करते हुए बताया कि जब प्रेमचंद उनसे मिलके घर पहुँचे तो उनकी पत्नी ने उनसे कहा कि आप तो गांधी के चेले हो गए हैं। जिस पर प्रेमचंद ने उत्तर दिया कि महात्मा जी से मिलने के बाद ऐसा नहीं हो सकता कि कोई उनका हुए बिना न रहे। गांधी जो काम आंदोलन के द्वारा कर रहे थे वही प्रेमचंद कलम से करने की कोशिश कर रहे थे। गांधी और प्रेमचंद दोनों ही प्रतिक्रियावादी नहीं हैं, वे हर जगह आशा की तलाश करते हैं। साम्प्रदायिकता पर बात करते हुए उन्होंने बताया कि समाज की स्मृतियां साझी स्मृतियां होती हैं। भेद की राजनीति इन स्मृतियों पर खतरा है। प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर ऐसी ही साझी स्मृति का प्रतीक है। उन्होंने बताया कि प्रेमचंद बौद्धिक लेखक समाज के पहलुआ थे। प्रेमचंद अपने लेखों में साम्प्रदायिकता, एकता, इस्लाम संस्कृति आदि विषयों पर भी बात करते हैं। उनके समय के अखबार पत्रिकाएं साम्प्रदायिक खबरों से अच्छ अटे पड़े थे, ऐसे वक्त में प्रेमचंद कर्बला नाटक लिखते हैं। प्रोफसर संतोष भदौरिया ने कहा कि संगत का मतलब है, और और नजदीक आना और यह कार्यक्रम गांधी और प्रेमचंद के नजदीक आने के लिए है। संचालन डॉ तोषी आनंद ने तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ धीरेन्द धवल ने दिया। डॉ कल्पना वर्मा, डॉ रतन कुमारी वर्मा, डॉ जनार्दन, डॉ अमृता, डॉ वीरेंद्र मीणा, डॉ मुदिता, डॉ सुरेंद्र कुमार सहित बड़ी सख्या में विद्यार्थी एवं शोधार्थी उपस्थित रहे।