आगरा:
प्रश्न: देश और विश्व में क्या है प्रकृति और पर्यावरण की स्थिति?
उत्तर: देखिए, हम पिछले एक दशक से बड़ा परिवर्तन देख रहे हैं। आर्थिक दृष्टि से देश आज विश्व में पांचवे नंबर पर है। आजादी के बाद से ही अन्य देशों की तुलना में हमने तेजी से प्रगति की है। किंतु इसी बीच में एक सवाल यह भी है कि हम इस बढ़ती प्रगति के बीच हैं क्या ऐसा है जिसे खो रहे हैं? इस बात पर आज ज्यादा केंद्रित होने की आवश्यकता आन पड़ी है कि हम जिन पश्चिमी देशों की बीते वर्षों में नकल करते आए हैं, अब वहां की स्थिति क्या है? वहीं यूरोप जिसे हम रोल मॉडल मारते रहे वो अब 3 बड़े संकटों से जूझ रहा है। पहला 41 से 47 डिग्री तापमान, ब्रिटेन में पंखे चल रहे हैं। अमेरिका में तूफान, विकसित और विशाल देश अपने कई शहरों को तबाह होने से नहीं रोक सका। तो अब हमें तय करना चाहिए कि हम किस विकास के पीछे हैं? नई-नई बीमारियां, कोविड, नए-नए तूफान, बाढ़ आ रही है। ऐसा क्या हुआ है पिछले 50 सालों में कि प्रकृति का यह स्वरूप हमें देखने को मिल रहा है? यह इसलिए हो रहा कि विकास शब्द कहीं था ही नहीं, शब्द था 'संमृद्धिÓ। यहीं पर हम चूक गए। विकास के नाम पर हमने बड़ी-बड़ी सड़कें बना दी होंगी, बड़ी-बड़ी इमारतें बना दी होंगी लेकिन देश में एक हजार से अधिक नदियां इस विकास के चलते अपना अस्तित्व हो चुकी हैं।


प्रश्न: युवाओं को ऐसे कौन से पांच प्रयास करने चाहिए जिससे वे प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे सकें?
उत्तर: सर्वप्रथम युवाओं को अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना होगा। आज के युवा को मजबूत होना होगा, क्योंकि कोई भी प्रयास शरीर द्वारा ही संभव है। ऐसे में युवाओं को बेहतर भोजन लेना होगा। भोजन से प्रवृत्ति बनती है जो सबके लिए होती है। आज के दौर में युवाओं की अपनी सोच एक बेहतर नदी और बेहतर वन वाली बनानी होगी। आज एक तरफ जब हम सब खो रहे हैं और युवा के हाथ में मोबाइल और मोटरसाइकिल हो तो हम किस दिशा में सोचेंगे? भोगवादी सभ्यता ने युवाओं को चारों ओर से घेर लिया है। ऐसे में युवाओं को त्यागने की प्रवृत्ति विकसित करनी होगी। कोई छोटी सी वस्तु के त्याग से शुरूआत कर सकते हैं। हमने युवाओं को संस्कार हीन बना दिया है। छात्र-शिक्षक के बीच के संबंध को ही देख लीजिए। हमें युवाओं में संस्कार डालने होंगे।


प्रश्न: राजनैतिक दलों की पर्यावरण और प्रकृति संरक्षण में भूमिका क्या है?
उत्तर: प्रकृति और पारिस्थिति के संबंध में संचालित योजनाओं में मैं सरकार को असहाय मानता हूं। 'नमामि गंगेÓ जैसी योजना यदि मूर्तरूप नहीं ले पा रही है उसका कारण यह है कि 40 करोड़ लोग जिस गंगा नदी को भोगते हों उसे उसे 4 हजार लोग कैसे स्वच्छ कर सकते हैं। गंगा सरकार की नहीं है और न ही इस देश की है। गंगा एक भाव है जिसे उसी रूप में समझना होगा। पहले नदी के भाव को समझना आवश्यक है। वन हों, नदियां हों, प्राणवायु हो इसके संरक्षण में सरकार की कोई बड़ी भूमिका नहीं हो सकती है। जब यमुना ब्रिज से आम आदमी कूड़ा नदी में फेंक रहा है तो उसमें सरकार क्या कर सकती है? 40 करोड़ लोग गंगा से जुड़े हैं, उन्हें जब तक नहीं जोड़ा जाएगा तब तक किसी भी योजना के सफल होने पर सवाल है।


प्रश्न: 4 राज्यों की यात्रा के अनुभव क्या रहे?
उत्तर: महाराष्ट्र के लोग प्रकृति संरक्षण के लिए जागरूक हैं। मध्यप्रदेश में भी लोग जलसंरक्षण के लिए प्रयास कर रहे हैं। अब सरकारों को जल संरक्षण के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करने होंगे। वनों के प्रति अभी भी देश में उदासीनता नजर आ रही है। जैसे हमने विकास के लिए सूचकांक तैयार किया है वैसे ही प्रकृति के लिए कोई एकाउंट क्यों नहीं बनाया? जो हमें बता सके कि अब हमारे पास कितने दिनों के लिए पानी है? कितने दिनों के लिए प्राणवायु है? और हमने इसके संरक्षण के लिए क्या प्रयास किए हैं? जीडीपी के साथ जीईपी (सकल पर्यावरणीय उत्पाद) प्राथमिकता होती तो जीडीपी से दुनिया को जहान और जीईपी से जान बचा सकते हैं।
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समुद्र से शिखर तक यात्रा
डॉ। अनिल जोशी ने बताया कि वे यात्रा सात राज्यों से लगभग दो हजार किमी का सफर साइकिल से करेंगे। 2 अक्टूबर को मुंबई से आरंभ हुई 15 सदस्यीय साइकिल यात्रा 9 नवंबर को उत्तराखंड राज्य स्थापना अवसर पर यह देहरादून पहुंचेगी। उन्होंने बताया कि यात्रा के दौरान महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा और उत्तराखंड में 50 हजार लोगों से संपर्क होगा। एक मिलियन लोगों से विभिन्न माध्यमों से संपर्क किया जाएगा। इस यात्रा को 'समुद्र से शिखर तकÓ नाम दिया है। इस दौरान हम रास्ते भर के अनुभव का संकलन कर रहे हैैं, इसे हम दुनिया के साथ साझा करेंगे।