आगरा (ब्यूरो)। हस्तनिर्मित चमड़े के जूते के लिए दुनियाभर में पहचान रखने वाले शहर के जूता उद्योग में मशीनों ने क्रांति ला दी है। पहले जहां हाथ से एक जूता बनाने में आठ दिन का समय लगता था, वहीं अब मशीनों से आठ घंटे में एक हजार जोड़ी तक जूते बन रहे हैं। छोटे कारोबारी भी अब नई तकनीकी का इस्तेमाल करने लगे हैं। इससे डिजिटल ङ्क्षप्रट और मैटेलिक लेदर के जूते बनना भी संभव हुआ है। यूरोपियन देशों से इसकी जबरदस्त मांग आ रही है।

500 वर्ष पुराना है उद्योग

शहर में जूता उद्योग करीब 500 वर्ष पुराना है। माना जाता है कि मुगलों के यहां आने के साथ जूता उद्योग की शुरुआत हुई। यहां के चमड़े के जूते को अगस्त, 2023 में जीआई टैग मिल चुका है। कुछ दशक पहले तक जूता फैक्ट्री में जाकर लोग अपना नाप दिया करते थे। उसके बाद चमड़ा भिगोकर कङ्क्षटग की जाती थी, फिर जूता बनाने की प्रक्रिया शुरू होती थी। इसमें एक जूता बनने में आठ दिन तक का समय लगता था। वर्तमान में जूता उद्योग में लेदर कङ्क्षटग, डिजाइङ्क्षनग, स्टिङ्क्षचग, पॉलीङ्क्षशग, फिनिङ्क्षशग के अलावा टो, अपर, सोल आदि बनाने का काम मशीनों से हो रहा है। चेन्नई से शू फेयर मीट एट आगरा में आई संगीथा एंटरप्राइजेज के सर्विस सेंटर रावत एंड रावत के प्रबंध निदेशक पृथ्वीचंद्र ङ्क्षसह रावत ने बताया कि करीब 45 तरह की मशीनों का इस्तेमाल जूता बनाने में हो रहा है। एक टो लाङ्क्षस्टग मशीन 16 श्रमिकों का काम अकेले कर रही है। इससे आठ घंटे में एक हजार तक जूतों की टो तैयार हो जाती हैं। बाजार में 10 से 12 लाख रुपये में सेकेंड हैंड मशीन उपलब्ध है। तमिलनाडु के तिरुपत्तूर जिले की डी2 फाइल्स कंपनी ने लेदर, मैटेलिक लेदर और ङ्क्षप्रट लेदर की स्टॉल लगाई है। फैक्ट्री मैनेजर उसामा काशिफ ने बताया, लेदर अब केवल सामान्य रंगों में ही नहीं रहा है। डिजिटल ङ्क्षप्रट और मैटेलिक लेदर को पसंद किया जा रहा है। मैटेलिक लेदर का उपयोग गारमेंट््स, लेडीज व किड्स शूज, बैग बनाने में किया जा रहा है। आगरा की पायनियर टेक के स्टाल पर जय कक्कड़ ने बताया कि वर्तमान में 75 प्रतिशत तक जूते मशीनों से बन रहे हैं। हाई फ्रीक्वेंसी वेङ्क्षल्डग एंबोङ्क्षजग मशीन से जूतों पर लोगो बनाने का काम आसान हुआ है। पांच लाख रुपये तक की कीमत में डबल स्टेशन मशीन उपलब्ध है। इस पर एक साथ दो व्यक्ति काम कर सकते हैं।

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ईको-फ्रेंडली शूज का है भविष्य

संदीप रबर इंडस्ट्रीज ने ईको-फ्रेंडली फुटबेड की स्टाल लगाई है। कंपनी के प्रबंध निदेशक सुनील गुप्ता ने बताया कि कार्क से बना फुटबेड पूरी तरह ईको-फ्रेंडली है। यह पर्यावरण को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाता है। वह जूतों के लिए ईको-फ्रेंडली रबर शीट, इंसोल, अपर तैयार कर रहे हैं। अपर पर ईको-फ्रेंडली कलर से ङ्क्षप्रङ्क्षटग की गई है। जूता निर्माण में प्रयुक्त होने वाली सामग्री की अपेक्षा ईको-फ्रेंडली सामग्री करीब 30 प्रतिशत तक महंगी है, लेकिन प्रकृति प्रेमी इसे पसंद करते हैं। भविष्य ईको-फ्रेंडली जूतों का ही है।

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पानी बेस्ड एडहेसिव

जूता बनाने में एडहेसिव का उपयोग किया जाता है। इसके निर्माण में केमिकल का अधिक प्रयोग होता है। फेयर में कोलकाता से आई इंटरकाम द्वारा वाटर बेस्ड एडहेसिव का स्टाल लगाया गया है। कंपनी के प्रतिनिधि राहुल सोलंकी ने बताया कि पानी बेस्ड एडहेसिव का कोई नुकसान नहीं है।