चौंकाने वाले नतीजे
इस नतीजे को एंटी स्टेब्लिशमेंट कहने के पीछे हमारी अपनी कुछ दलीलें हैं. आपको याद होगा आज से ठीक चार महीने पहले 7 मार्च को उत्तर प्रदेश विधान सभा के नतीजे सामने आये और राज्य में एक नौजवान सरकार ने सत्ता संभाली. वो नतीजा भी थोड़ा चौंकाने वाला था. आपको यह भी याद होगा कि खुद सपा को इस तरह के नतीजे की उम्मीद नहीं थी. आम मतदाता की तरह सपा ने भी अपने हिस्से में सरकारी गुलगुले के आने की आस तो लगायी थी लेकिन अकेले अपने दम पर सरकार बनाने जैसे नतीजे के आने का तो उसे भी यकीन नहीं था. अब आज चार महीने बाद आखिर ऐसा क्या हो गया जो आगरा, लखनऊ, कानपुर, बनारस, मेरठ और गोरखपुर में वोटर्स ने उसे अंगूठा दिखा दिया और मेयर का ताज भाजपा के सिर रख दिया? इलाहाबाद में भी बसपा के प्रत्याशी का सत्ता हथिया लेना सपा के बारे में क्या मैसेज देता है?

खरा जनादेश है ये
सिर्फ बरेली में सपा समर्थित कैंडिडेट ने पार्टी की नाक बचा ली. इस नतीजे का एक दिलचस्प पहलू ये भी है कि जिन दो जगहों पर बीजेपी हारी उनमें भी वो दूसरे नम्बर पर थी. बाकी चार जगहों पर नम्बर दो पर कांग्रेस का रहना इस बात का इशारा है कि यूपी का वोटर कांग्रेस पर पूरी तरह से यकीन करने में अब भी थोड़ा हिचक रहा है. हो सकता है कि आप कहें कि सपा तो मैदान में थी ही नहीं या पार्टी ने किसी को सिम्बल दिया ही नहीं फिर उसे हारा हुआ कैसे कह सकते हैं? सर, सिस्टम के खिलाफ वोटिंग की जो बात हम कह रहे हैं उसके पीछे भी तो यही तर्क है. हमें अच्छी तरह से ये समझ लेना चाहिए कि नगर निकाय के चुनाव नतीजे शुद्ध रूप से हमारी शहरी आबादी के वोटर्स के फैसले को आइडेंटिफाई करता है. एक तो ये शहरी वोटर पढ़ा लिखा होता है और दूसरे उसे किसी कस्बाई या देहाती वोटर की तुलना में राजनीति की अच्छी समझ होती है. वो ये भी जानता है कि भले सपा ने आधिकारिक तौर पर अपना प्रत्याशी न खड़ा किया हो या पार्टी सिम्बल किसी को एलॉट न किया हो लेकिन हर शहर में उसके कैंडिडेट मैदान में ताल ठोंक रहे थे.

मामला सिक्योरिटी का है जनाब!
इन सबके अलावा क्राइम चार्ट इस बात को साबित करता है कि सपा के सत्ता में आने के बाद से यूपी में अपराध बढ़े हैं. हर शहर में रंगदारी मांगने वालों की बाढ़ सी आ गयी है. चेन स्नेचिंग की मामूली सी घटना से लेकर बैंक से रकम लेकर निकलते वक्त होने वाली दिनदहाड़े लूट की घटनाएं बेशुमार बढ़ गयीं हैं. भले ही लोग बाग अभी कुछ ना कह रहे हों लेकिन एक खास बिरादरी का वर्चस्व बढ़ गया है. ब्यूरोक्रेसी भी अब इस खास बिरादरी के प्रति कोई ऐक्शन लेने से कतराने लगी है. उनके अपनों के बीच के इस तबके के लोगों के प्रति सत्ता अनुराग बढ़ा है. सरकार का पहले डिसीजन लेना और उसके बाद उससे तत्काल बैकफुट पर आ जाना पब्लिक को शायद सोचने पर मजबूर करने लगा है. हो सकता है आप कहें कि चार महीने में ही कोई ऐसा कैसे फैसला कर सकता है? सर, अभी ऊपर हमने जो कारण गिनाये हैं वो इस सवाल का ही तो जवाब है. इन सबके अलावा हमारे सूबे का बिजनेस क्लास उनके शहर का निजाम बीजेपी से जुदा हो, ऐसा सोच भी नहीं पाता. ऐसे में जबकि वो खुद को अन सिक्योर फील कर रहा हो, उसे कोई खास डेवलपमेंट भी नहीं दिख रहा हो तो वो स्टेब्लिशमेंट की चाबी किसी दूसरे को कैसे सौंप दे? यहां 'दूसरा' इसलिए कहा क्योंकि दुनिया जानती है कि व्यापारी तबका सिर्फ भाजपा को ही अपना मानता है.

होगा नया ध्रुवीकरण
वैसे आपको बता दें कि ये नतीजे आने वाले वक्त में यूपी की राजनीति में में एक नया ध्रुवीकरण करेंगे. इसके बाद अब अगला चुनाव लोकसभा का ही होना है. मैक्सिमम शहरों में मेयर भाजपा का है तो नगर निगम में मेंबर्स निर्दल हैं. उनमें से भी कुछ सपा समर्थित हैं तो कुछ बसपा समर्थित. मतलब ये तय है कि हर शहर के मिनी सदन में खींचतान होना है. ये खींचतान अपने सूबे की सरकार को परेशान करे या न करे लेकिन उसकी छवि पर असर जरूर डालेगी. ये इम्पैक्ट कहीं न कहीं आने वाले लोकसभा चुनाव में नये तरह की राजनीति की बुनियाद तय करेगी.
चाणक्य के जमाने से ही राज और नीति दोनों में ही किंतु परंतु की गुंजाइश रही है. ऐसे में इन फ्यूचर अगर आपको अपना सो कॉल्ड निर्दल पार्षद किसी पार्टी की चादर ओढ़े दिखे या किसी पार्टी का सभासद किसी दूसरे खेमे में दिखे तो डोंट बी सरप्राइज्ड. यही तो पॉलिटिक्स है जनाब.

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