हॉलनुमा कमरे में नेहरू, इंदिरा, राजीव और सोनिया गांधी के अलावा कमलापति त्रिपाठी की भी तस्वीर टंगी है।
देवेंद्र प्रताप सिंह बताते हैं कि आज चंदौली में जो कुछ भी है वो कमलापति त्रिपाठी की ही वजह से है।
सिंह कहते हैं, "यहां के लोग कहते हैं कि पंडित जी के नेता बनने से पहले चंदौली की ज़मीन पर सिर्फ़ मोतंजा (घास) हुआ करता था। लेकिन उन्होंने यहां 22 किलोमीटर लंबा नहरों का जाल बिछवाया जिसकी वजह से चंदौली जनपद अब धान का कटोरा कहा जाता है।"
देवेंद्र प्रताप सिंह आगे बताते हैं, "पंडित जी के बाद उनकी हैसियत का कोई नेता नहीं बन पाया जो विकास करा पाता। यही नहीं, दूसरे लोगों में ये इच्छाशक्ति भी नहीं रही।"
देवेंद्र प्रताप सिंह की ही तरह कांग्रेस के और लोगों ने भी पंडित कमलापति त्रिपाठी के कार्यों का बखान किया। लेकिन शहर में बुनियादी सुविधाओं के खस्ताहाल होने के सवाल पर वो दूसरी सरकारों और नेताओं को कोसने लगे?
मुख्य मार्ग से शहर में दाखिल होते ही टूटी सड़कों, खुली नालियों और जाम की समस्या यहां पूर्वांचल के किसी दूसरे शहर से कम नहीं थी।
चंदौली बनारस से अलग होकर 1997 में ही ज़िला बन गया था। ज़िले का मुख्यालय भी यहीं है। लेकिन इसकी स्थिति आज भी वैसी ही है जैसी कि इसके तहसील रहते हुए थी।
मुख्यालय के बाहर मिले वकील रामशंकर सिंह कहते हैं, "उनके समय में विकास के जो काम हुए वो अकेले चंदौली में नहीं बल्कि पूरे बनारस में हुए। लेकिन उनके बाद कोई दूसरा नेता यहां का ख़्याल रखने वाला नहीं हुआ।
स्टेशनरी की एक दुकान चलानेवाले बुज़ुर्ग श्रीराम यादव ने बताया, "पंडित जी केवल दो साल के लिए मुख्यमंत्री बने। कुछ और दिन रहे होते तो विकास करते। रेलमंत्री रहे तो उन्होंने ट्रेनें ख़ूब चलवाईं।"
तहसील गेट के पास एक छोटे से पार्क में कमलापति त्रिपाठी की मूर्ति लगी है। उस पार्क का नाम भी उन्हीं के नाम पर है। पार्क और उस पर लगी मूर्ति का हाल बुरा था।
उधर से गुज़र रहे कुछ स्कूली बच्चों से जब हमने जानना चाहा कि क्या वो कमलापति त्रिपाठी को जानते हैं तो कोई भी बच्चा उनके नाम के अलावा और किसी तरह से उनसे परिचित नहीं था। हालांकि ये बच्चे आठवीं से दसवीं कक्षा तक के थे।
चंदौली कमलापति त्रिपाठी की कर्मभूमि भले रही हो। लेकिन यहां न तो उनका कोई मकान है और न ही उनके परिवार का कोई व्यक्ति उनकी राजनीतिक विरासत संभाल रहा है।
उत्तर प्रदेश का चंदौली कई समस्याओं से घिरा हुआ है।
कमलापति त्रिपाठी 1984 तक लोकसभा सदस्य रहे। लेकिन राजनीति में उनकी चौथी पीढ़ी यानी उनके बेटे लोकपति त्रिपाठी के पौत्र ललितेशपति त्रिपाठी भी उतर चुके हैं।
ललितेश पड़ोसी ज़िले मिर्ज़ापुर की मड़िहान विधानसभा सीट से कांग्रेस विधायक हैं। वो इस बार फिर चुनाव मैदान में हैं।
1984 से अब तक एक लंबा समय बीत चुका है। लेकिन अपनी कर्मभूमि में एक बड़े नेता को भूल जाना कई सवाल खड़े करता है।
वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय कहते हैं, " नेताओं की पहचान अब उनके काम से नहीं बल्कि पार्टी से होने लगी है। और अब तो ये दौर भी शुरू हो चुका है कि पुराने नेताओं के किए-धरे को अपना बताओ। ऐसे में नई पीढ़ी क्या जानेगी और समझेगी?"
चंदौली लोकसभा सीट है। इस ज़िले में कुल चार विधानसभा सीटें हैं। कमलापति त्रिपाठी चंदौली से ही लोकसभा और यहीं से विधानसभा चुनाव भी लड़े। अब यह विधानसभा सकलडीहा हो गई है।
केंद्रीय गृहमंत्री और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह का गृह ज़िला भी चंदौली है। हालांकि राजनाथ सिंह यहां से कभी चुनाव नहीं लड़े।
स्थानीय पत्रकार संतोष कुमार कहते हैं, "यहां से तो छोड़िए, राजनाथ सिंह ने तो कभी विधानसभा का चुनाव लड़ा ही नहीं। सिर्फ़ मुख्यमंत्री बनने के बाद लड़े थे। वो भी हैदरगढ़ से। वो चंदौली ज़िले की ही चकिया तहसील के निवासी हैं ज़रूर लेकिन उनकी कर्मभूमि भी मिर्ज़ापुर रही है।"
बिहार की सीमा से लगा ये इलाक़ा नक्सल प्रभावित भी है। आए दिन नक्सली वारदातें होती रहती हैं। राजनाथ सिंह के अलावा केंद्रीय मंत्री महेंद्र नाथ पांडेय चंदौली से सांसद हैं। बावजूद इसके इलाक़े के लोग विकास से वंचित हैं।
संदीप दुबे नाम के एक युवा कहते हैं, "केंद्रीय नेता कहेंगे कि राज्य में सरकार बनवाओ, राज्य सरकार कहती है कि केंद्र सरकार भेदभाव कर रही है। जब दोनों जगह सरकार रहेगी तो हो सकता है कि यहां का एमपी-एमएलए उस पार्टी का न हो। ऐसे में विकास भगवान भरोसे ही है। चुनाव है तो आदमी वोट डाल आता है। बाक़ी किसी से उम्मीद कुछ नहीं रहती।"
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