संसार में युगों-युगों से यह मान्यता है कि मनुष्यात्माएं 84 लाख योनियां भोगने के पश्चात मनुष्य रूप धारण कर पाती हैं। परंतु समस्त सृष्टि के रचनाकार स्वयं परमात्मा कहते हैं कि मनुष्यात्मा कभी पाशविक योनि धारण नहीं करती। इसके कई कारण हैं। जैसे, यह प्रत्यक्ष सत्य है कि प्रत्येक प्रकार के वृक्ष के लिए अलग प्रकार का बीज होता है। ठीक इसी प्रकार, मनुष्यात्माएं भी कभी पशु-रूप धारण नहीं कर सकतीं, न ही पशु मनुष्यरूप धारण कर सकते हैं।
अनादिकाल से प्रत्येक मनुष्यात्मा का स्वभाव व संस्कार अन्य सब मनुष्यात्माओं से भिन्न होने के कारण मनुष्यात्माएं ही एक-दूसरे से भिन्न हैं तो मनुष्यात्माओं के पशु बनने की बात ही कहां रही? यहां तक कि गीता में भी भगवान के महावाक्य हैं कि 'हे वत्स, ज्ञानी का भी अपना न्यारा ही स्वभाव है जिसके अनुसार वह कर्म में बरतता है।‘ अत: अनादिकाल से भिन्न स्वभाव वाली मनुष्यात्माओं द्वारा पाशविक शरीर धारण करने की जो मान्यता है, वह अल्पज्ञ मनुष्यों की कल्पना मात्र ही है। हालांकि बहुत से विद्वान, आचार्य और उनके अनुयायी यह मानते हैं कि मनुष्य जो विकर्म करता है, उसका दु:ख रूप परिणाम भोगने के लिए उसे पाशविक योनियां धारण करनी पड़ती हैं परंतु विचार करने योग्य बात यह है कि यदि सत्यता ऐसे ही होती तो फिर सृष्टि पर कोई भी दुखी न होता। अत: मनुष्यों के सुखी और दु:खी दिखाई देने से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य अपने कर्मों का सुख-दु:ख रूपी फल मनुष्य-योनि में ही भोगता है।
कई लोग फिर यह सोचते हैं कि यदि यह मान लिया जाए कि एक योनि की आत्माएं दूसरी योनि धारण नहीं कर सकतीं, तो इसका अर्थ यह होगा कि पशु-पक्षी सदा पशु-पक्षी ही रहते हैं, उन्हें कभी मनुष्य बनने का अवसर प्राप्त ही नहीं होता। इस सोच के आधार पर वे लोग फिर कहते हैं कि 'यह तो प्रभु का अन्याय होगा कि पशु योनि की आत्माएं कभी भी मनुष्य न बन सकें!’ परंतु ऐसे लोगों के प्रति एक प्रश्न यह है कि उनका यह सब विचार किस आधार पर है? उत्तर मिलेगा कि वह यह समझते हैं कि मनुष्य योनि में सुख होता है और मनुष्य योनि में ही आत्मा पुरुषार्थ करके मुक्ति प्राप्त कर लेती हैं और कि 'यदि पशु योनि की आत्माएं मनुष्य योनि धारण न कर सकें तो वे मुक्ति और पूर्ण सुख कैसे पा सकें?’ जबकि वास्तविकता तो यह है कि हर एक आत्मा इस सृष्टि में आधा समय सुख और आधा समय दु:ख भोगती है।
अधिक स्तर का सुख भोगने वाली आत्मा को दु:ख की भी पराकाष्ठा भोगनी पड़ती है और कम स्तर का सुख भोगने वाली आत्मा को दु:ख भी तदानुसार कम ही मिलता है। अत: कोई आत्मा मनुष्य-योनि की हो या पाशविक-योनि की, सुख-दु:ख तो हर आत्मा का उसके कर्म अनुकूल बराबर ही रहता है। दूसरा, यह भी सिद्ध किया जा सकता है कि मुक्ति के लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं। मुक्ति तो कल्प के अंत में, सृष्टि के विनाश द्वारा, परमात्मा सभी आत्माओं को प्रदान करते हैं और उसके बाद पाशविक योनियों की आत्माएं भी सतयुगीय, सुख-शांति संपन्न सृष्टि में जन्म लेती हैं क्योंकि मनुष्यात्माओं के योगयुक्त होने पर यह सृष्टि सतोप्रधान हो ही जाती है।
मनुष्यात्माओं से जुड़े मिथक
यह कहना कि 'यदि पाशविक योनि की आत्माएं मनुष्य शरीर धारण नहीं कर सकतीं तो उनके साथ यह परमात्मा का अन्याय है’, भूल है क्योंकि पाशविक योनि की आत्माएं भी मुक्ति पाती हैं और सुख दु:ख भोगती हैं। ऐसे ही मनुष्य भी मनुष्य योनि में ही पशुओं से भी निकृष्ट स्वभाव का हो सकता है। अत: यह कहना कि 'मनुष्यात्माएं पशु-पक्षी बनती हैं’, अज्ञान पर आश्रित है।
— राजयोगी ब्रह्माकुमार निकुंजजी
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