नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ़ नागालैंड (इसाक-मुइवा गुट) के साथ भारत सरकार की बातचीत और युद्धविराम के 17 साल बाद ऐसा होने कुछ हैरान करने वाला है.
इस दौरान एनएससीएन के खापलांग गुट को दो बार टूट का सामना करना पड़ा.
खापलांग गुट में टूट
इस साल जब खापलांग गुट ने युद्धविराम को और आगे नहीं बढ़ाने का फ़ैसला किया, एक बार फिर उसमें टूट हुई. वांगतिंग आओ और पी थिखाक ने इस गुट से अपना रास्ता अलग कर लिया.
गृह मंत्रालय और खुफ़िया एजेंसियों के अफ़सर नागाओं के साथ बीतचीत चला रहे थे और उन्हें अनुमान था कि खापलांग गुट धीरे धीरे कमज़ोर हो जाएगा और म्यांमार से सटे सगाइंग प्रांत में वे बेअसर हो जाएंगे.
लेकिन खापलांग समूह ने इस मौके पर बहुत सोच समझ कर रणनीति बनाई. खापलांग की यह शिकायत थी कि भारत सरकार उसके गुट को तवज्जो इस आधार पर नहीं दे रही है कि वह म्यांमार के हैं और सरकार विदेशियों के साथ बातचीत नही करेगी.
भारत सरकार खापलांग पर यह दवाब बनाती रही है कि वह म्यांमार के नागाओं को इसके लिए राज़ी करें कि वे पूर्वोत्तर के विद्रोहियों को अपने यहां सगाइंग प्रातं में पनाह नहीं देंगे.
खापलांग की रणनीति
खापलांग ने 2012 में म्यांमार की थ्यान सेन सरकार के साथ शांति समझौत कर सबको हैरत में डाल दिया. उनके गुट को इसका फ़ायदा यह मिला कि म्यांमार की सेना ने उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करना बंद कर दिया.
वैसे भी म्यांमार की सेना को भारत के ख़िलाफ़ बग़ावत करने वालों को अपने यहां से खदेड़ने में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी.
भारत सरकार का रुख यह था कि यदि खापलांग गुट असम के अल्फ़ा और बोडो विद्रोहियों और मणिपुर के विद्रोहियों को म्यांमार में अपने यहां पनाह देना बंद नहीं करता है तो उसके साथ आगे की बातचीत न की जाए.
खापलांग गुट इस मौके पर चुपचाप बातचीत से अलग हो गया. उसने मार्च में नागालैंड की ‘आज़ादी’ के लिए लड़ाई तेज़ करने का ऐलान कर दिया.
दो महीने तक हमले
उन्होंने एक महीने बाद ही यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ़्रंट ऑफ़ वेस्टर्न साउथ-ईस्ट एशिया (यूएनएलएफडब्लूएसईए) की स्थापना की.
इसमें आल्फ़ा के परेश बरुआ गुट, कमतापुर लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन, एनडीएफबी (संगजिबि गुट), केवाइकेएल और मणिपुर के केसीपी शामिल हैं.
मेइती विद्रोहियों के दो समूह यूएनएलएफ़ और पीएलए नेतृत्व के मुद्दे पर मतभेद की वजह से इसमें शामिल नहीं हुए, पर वे भारत के सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ हमले करने में सहयोग करने पर सहमत हो गए.
इसके बाद यूएनएलएफडब्लूएसईए के छापामार भारतीय सुरक्षा बलों पर दो महीने तक हमले करते रहे.
अंतिम छह हमले अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मणिपुर में हुए, जिनमें 35 सैनिक मारे गए और बड़ी तादाद में ज़ख्मी हुए.
हाल के हमले में मणिपुर के चंदेल ज़िले में विद्रोहियों ने बेहतर रणनीति और उन्नत हथियारों का इस्तेमाल किया, जिससे छठे डोगरा रेजिमेंट को बड़ा नुक़सान हुआ.
यह खापलांग की रणनीति थी. भारत ने उन्हें राजनीतिक प्रक्रिया से अलग थलग कर दिया तो उन्हेंने म्यांमार के ‘सगाइंग कार्ड’ का बखूबी इस्तेमाल किया.
‘सगाइंग कार्ड’
जब भूटान और बांग्लादेश ने अपने यहां सक्रिय भारत विरोधी समूहों के ख़िलाफ़ कार्रवाई तेज़ कर दी तो म्यांमार अकेला ठिकाना रहा जहां से भारत पर हमले किए जा सकते थे. नतीजतन, वे भारत विरोधी समूहों के नेता बन कर उभरे.
भारत की ख़ुफ़िया एंजेंसियों का मानना है कि खापलांग और अल्फ़ा के परेश बरुआ गुट ने म्यांमार मे सक्रिय चीन समर्थक यूनाइटेड वा स्टेट आर्मी (यूडब्लूएसए) और कोकांग एमएनडीएए गुटों के ज़रिए चीनी हथियार हासिल करने का समझौता कर लिया है.
इससे इस संदेह को बल मिलता है कि चीन की खुफ़िया एजेंसियों के लोगों ने खापलांग और अल्फ़ा के परेश बरुआ गुट को साथ लाकर यूएनएलएफडब्लूएसईए का गठन करने में अहम भूमिका निभाई है.
भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियां मानती हैं कि इन्होंने ही यूडब्लूएसए को भी इनके साथ ला खड़ा किया. यूडब्लूएसए के ठिकाने पर मई महीने में एक बैठक हुई, जिसमें इन सभी गुटों के नेता शामिल हुए थे.
चीन की भूमिका
भारत और म्यांमार के ख़िलाफ़ विद्रोहियों को इस्तेमाल करने का चीन का पुराना इतिहास रहा है. दरअसल माओ त्से तुंग और चाओ एनलाई के ज़माने से ही नागा और मिज़ो विद्रोही चीन के युन्नान प्रांत जाकर प्रशिक्षण लिया करते थे.
भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियां मानती हैं कि चाहे चीन अब ‘क्रांति का निर्यात’ करने में यक़ीन नहीं करता, पर वह भारत और म्यांमार की अमरीका परस्ती नीति को ‘ठीक’ करने के लिए इन विद्रोहियों का इस्तेमाल करना चाहता है.
परेश बरुआ ने एक बार इस लेखक को बताया कि उनके इलाक़े को भारत-चीन लड़ाई के दौरान ही आज़ादी मिल सकती है.
भारत-चीन युद्ध?
बांग्लादेश से खदेड़े जाने के बाद 2011 में वे चीन-म्यांमार सीमा पर रुइली प्रांत चले गए. उन्होंने वहां से भारत के ख़िलाफ़ बग़ावत की कोशिश की थी.
बरुआ और एनडीएफ़बी के संगजीबित को खापलांग के नेतृत्व में भारत के ख़िलाफ़ उम्मीद की किरण दिखाई देती है.
नए गुट के उभरने के बाद सुरक्षा एजेंसियों को सारे समीकरणों पर एक बार फिर से सोचना होगा. भारत को कूटनीतिक ज़रिए से म्यांमार पर इसके लिए दवाब बनाना होगा कि इन गुटों के खिलाफ़ वह कार्रवाई करे.
कूटनीति का ही सहारा?
यदि खापलांग गुट भारत के सुरक्षा बलों पर हमले जारी रखता है तो सरकार लंबे समय तक इसकी अनदेखी नहीं कर सकेगी.
ज़ाहिर है, म्यांमार के पास भारत के ‘पूर्वी दरवाज़े’ की चाबी है. यदि भारत पूरब की ओर देखो की नीति पर चलता है तो उसे इस चाबी का इस्तेमाल करना होगा.
उसके पास पूर्वोत्तर में धधक रही आग को समय रहते बुझाने के अलावा कोई चारा नहीं होगा.
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