टीपू के सांप्रदायिक होने या न होने पर बहस छिड़ी है। लेकिन उसके एक कारनामे को लेकर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है।
लंदन के मशहूर साइंस म्यूज़ियम में मैंने टीपू के कुछ रॉकेट देखे। ये उन रॉकेट में से थे जिन्हें अंग्रेज़ अपने साथ 18वीं सदी के अंत में ले गए थे।
ये दिवाली वाले रॉकेट से थोड़े ही लंबे होते थे। टीपू के ये रॉकेट इस मायने में क्रांतिकारी कहे जा सकते हैं कि इन्होंने भविष्य में रॉकेट बनाने की नींव रखी।
भारत के मिसाइल कार्यक्रम के जनक एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी किताब 'विंग्स ऑफ़ फ़ायर' में लिखा है कि उन्होंने नासा के एक सेंटर में टीपू की सेना की रॉकेट वाली पेंटिग देखी थी।
कलाम लिखते हैं, "मुझे ये लगा कि धरती के दूसरे सिरे पर युद्ध में सबसे पहले इस्तेमाल हुए रॉकेट और उनका इस्तेमाल करने वाले सुल्तान की दूरदृष्टि का जश्न मनाया जा रहा था। वहीं हमारे देश में लोग ये बात या तो जानते नहीं या उसको तवज्जो नहीं देते।"
असल में टीपू और उनके पिता हैदर अली ने दक्षिण भारत में दबदबे की लड़ाई में अक्सर रॉकेट का इस्तेमाल किया।
ये रॉकेट उन्हें ज्यादा कामयाबी दिला पाए हों ऐसा लगता नहीं। लेकिन ये दुश्मन में खलबली ज़रूर फैलाते थे।
उन्होंने जिन रॉकेट का इस्तेमाल किया वो बेहद छोटे लेकिन मारक थे। इनमें प्रोपेलेंट को रखने के लिए लोहे की नलियों का इस्तेमाल होता था। ये ट्यूब तलवारों से जुड़ी होती थी. ये रॉकेट करीब दो किलोमीटर तक मार कर सकते थे।
माना जाता है कि पोल्लिलोर की लड़ाई (आज के तमिलनाडु का कांचीपुरम) में इन रॉकेट ने ही खेल बदलकर रख दिया था।
1780 में हुई इस लड़ाई में एक रॉकेट शायद अंग्रेज़ों की बारूद गाड़ी में जा टकराया था। अंग्रेज़ ये युद्ध हार गए थे।
टीपू के इसी रॉकेट में सुधार कर अंग्रेज़ों ने उसका इस्तेमाल नेपोलियन के ख़िलाफ़ किया।
हालांकि ये रॉकेट अमरीकियों के ख़िलाफ़ युद्ध में कमाल नहीं दिखा सका, क्योंकि अमरीकियों को किलेबंदी कर रॉकेट से निपटने का गुर आता था।
19वीं सदी के अंत में बंदूक में सुधार की वजह से रॉकेट एक बार फिर चलन से बाहर हो गया।
1930 के दशक में गोडार्ड ने रॉकेट में तरल ईंधन का इस्तेमाल किया। लेकिन भारत की धरती पर रॉकेट तभी वापस आया जब 60 के दशक में विक्रम साराभाई ने भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम शुरू किया।
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