डाॅ. रमेश ठाकुर (जर्नलिस्ट)। दशक भर पहले वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने हुकूमतों को मुफ्त में सलाह दी थी, जिसे तत्कालीन केंद्र सरकार ने दरकिनार कर दिया। सलाह के मुताबिक समूचे हिमालयीय क्षेत्र में ग्लेशियर्स पर रिसर्च की जरूरत बताई गई थी। इसके अलावा ग्लेशियर्स पर मुकम्मल अध्ययन के लिए सन् 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी भी बनाई थी। बावजूद इसके हमने पनबिजली योजना, बांध-बैराज आदि बनाने का लालच नहीं छोड़ा। तपोवन में मचा कोहराम इसी बात का नतीजा है। केदारनाथ हादसे के बाद भी हमने कोई सबक नहीं सीखा। अब भी अगर हम सतर्क नहीं हुए, तो कुछ अंतराल के बाद अगली तबाही झेलने के लिए फिर से हमें तैयार रहना चाहिए और अगर हम चाहते हैं कि ऐसा न हो, तो कुदरत की इस मार से सबक लेना होगा।
भागीरथी के प्रकोप ने क्षण भर में इसे रौंद कर उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया
कुदरत ने दूसरी बार अपने रुद्र रूप से हमें परिचय कराया। संकेत साफ हैं कि मानव जाति को जितना संभलना है संभल ले, भविष्य में कभी भी कुछ भी हो सकता है। रविवार को सुबह से लेकर ढलती दोपहरी तक उत्तराखंड का ऋषिवास कहे जाने वाला तपोवन पूरी तरह से गुलजार था, लेकिन भागीरथी के प्रकोप ने क्षण भर में इसे रौंद कर उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया। ज्ञान, विज्ञान, सरकारी सिस्टम व स्थानीय लोग मूक दर्शक बनकर देखते रह गए। तपोभूमि उत्तरकाशी में विनाश की यह दूसरी किस्त है। सरकारी स्तर पर विनाश के कारणों को खोजना शुरू कर दिया गया है। वजहों को खोजना भी चाहिए, लेकिन निवारण ढूंढना उतना आसान नहीं दिखता। आपदा का कारण पहïली नजर में ग्लेशियर का टूटना बताया गया है। हो भी सकता है कि ऐसा ही हुआ हो। क्योंकि पूर्व में हिमालय में भी ऐसी घटनाएं सामने आई थीं। जब वहां ग्लेशियर्स के फटने से सैलाब उमड़ा।
सभी परियोजनाएं विनाशकारी तबाही में नेस्तेनाबूद हो गई सिर्फ निशान ही बचे
ग्लेशियर्स की जांच के लिए दिल्ली से वैज्ञानिकों का दल केंद्र सरकार ने रवाना किया है। ये दल वास्तविक रूप से तबाही की वजहों को खोजेगा और पता लगाएगा कि भविष्य में अगर ऐसी घटना घटे तो लोगों को कैसे बचाया जाए। वैसे देखें तो घटना के कुछ कारण और मानवीय हिमाकतें सामने हैं। प्रकृति का वहां खुलेआम दोहन किया जा रहा है। पहाड़ों को चीरकर तपोवन विष्णुगाड प्रोजेक्ट, ऋषिगंगा हाइड्रोप्रोजेक्ट, बिजली मेगावाट के अलावा कई प्रोजेक्ट्स वहां संचालित हैं। फिलहाल सभी परियोजनाएं विनाशकारी तबाही में नेस्तेनाबूद हो गई हैं। सिर्फ निशान ही बचे हैं। प्रोजेक्ट्स में कार्यरत कर्मचारी-मजदूर पत्तों की तरह पानी के तेज बहाव में पता नहीं कहां-कहां बह गए हैं। तस्वीरों में साफ दिख रहा है, बहाव की जद में जो भी सामने आ रहा है, वो बहता ही चला जा रहा है।
कुदरत को नुकसान पहुंचाने का खामियाजा समूची मानव जाति को भुगतना पड़ा
उत्तराखंड को देवों की भूमि कहा जाता है, लेकिन उनके आशियानों को उजाड़ने में मानवीय हरकतें युद्ध स्तर पर लगी हैं। बड़े-बड़े गगनचुम्बी पहाड़ों को आधुनिक मशीनों से तहस-नहस किया जा रहा है। विरोध होता है, पर असर नहीं होता। मानव सुविधाओं के लिए परियोजनाओं को संचालित किया जाना भी जरूरी है, पर कुदरत को नुकसान पहुंचाकर नहीं? कालांतर के काल खंड में इस बात का संदर्भ है कि जब-जब मानव ने कुदरती वस्तुओं को कोई नुकसान पहुंचाया, उसका खामियाजा समूची मानव जाति को भुगतना पड़ा।
कोर्ट ने कहा था कि धौल गंगा घाटी में प्रस्तावित बिजली परियोजना पर रोक लगे
याद आता है, अगस्त 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने एक एक्सपर्ट बॉडी का गठन किया था, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि धौल गंगा घाटी में प्रस्तावित बिजली परियोजना पर रोक लगाई जाए। क्योंकि वह क्षेत्र पैराग्लेशियल जोन में आता है। वहां तबाही के संकेत पहले से थे। ग्लेशियर अपने स्थान से काफी पीछे खिसक चुके हैं, जो जगह ग्लेशियर्स ने छोड़ी थी, वहां बोल्डरयुक्त मलबे के बड़े-बड़े पहाड़ खड़े हो गए थे, जो कभी भी तबाही कारण बन सकते थे। उन पहाड़ों ने तबाही की तारीख सात फरवरी मुकर्रर कर रखी थी, जिसकी किसी को भनक तक नहीं हुई। हां, इतना जरूर पता था कि उन पहाड़ों का पानी के रूप में बहना निश्चित था। इस बाबत पर्यावरणविद प्रो. रवि चोपड़ा ने सुप्रीम कोर्ट में शिकायत भी की थी। उनकी शिकायत को गंभीरता से लेते हुए अपनी बनाई कमेटी में उन्हें सदस्य भी बनाया था। उस समय उन्होंने जो सुझाव दिए, उनपर कांग्रेस की हुकूमत ने अमल नहीं किया।
तत्कालीन मंत्री उमा भारती के विरोधों का भी पनबिजली योजनाओं कोई असर नहीं
केंद्र की मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में जब उमा भारती मंत्री थीं, तो उन्होंने भी उन पनबिजली योजनाओं का विरोध किया था। बाकायदा इसकी रिपोर्ट भी दी थी, लेकिन सरकार का काम रोकना उतना आसान नहीं था, तब तक सत्तर फीसदी परियोजना पूरी हो चुकी थी। परियोजना सन् 2000 से संचालित थी। इसलिए पर्यावरणविद प्रो. रवि चोपड़ा और तत्कालीन मंत्री उमा भारती के विरोधों का भी कोई असर नहीं हुआ। परियोजना का काम बदस्तूर जारी रहा। वैज्ञानिक रिपोर्ट ने भी केंद्र व राज्य की हुकूमत को आगाह किया था। वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की सजगता को अगर उस वक्त गंभीरता से लिया गया होता तो शायद आज हमें इस प्रलय का सामना नहीं करना पड़ता।
National News inextlive from India News Desk