रूस और इसके प्रेसिडेंट व्लादिमीर पुतिन की अमेरिका से कभी नहीं बनती। हालांकि रूस और अमेरिका की आपसी नफरत कोल्डे वॉर के दौर से जारी है। जहां US जब तब रूस के आंतरिक मामलों में हस्तपक्षेप करता रहता है, वहीं जब भी मौका मिले रूस भी अमेरिका के काम में टांग डालने से नहीं चूकता। खास बात यह है कि सिर्फ राजनैतिक स्तभर पर ही नहीं रूस की आम पब्लि क भी अपने देश के प्रति अमेरिकी नीतियों से काफी चिढ़ती है।
नॉर्थ कोरिया के तानाशाह किम जोंग-उन और उनका पूरा परिवार अमेरिका का शायद सबसे बड़ा विरोधी है। चीन और रूस के गुपचुप सहयोग से नॉर्थ कोरिया ने तमाम सैन्य तकनीकें हासिल कर ली हैं और पिछले दिनों कथित हाइड्रोजन बम का सफल टेस्ट करके किम जोंग-उन ने अमेरिका खुली धमकी भी दे डाली है। भले ही बगल के देश साउथ कोरिया में अपने प्रभाव के चलते अमेरिका इस देश पर तमाम दबाव बनाने की कोशिश करता रहे लेकिन नॉर्थ कोरिया को दबा पाना फिलहाल यूएस के लिए पॉसिबल दिखाई नहीं देता।
जॉर्डन और यहां का शाही खानदान जो अब किंग अब्दुल्ला II के आधीन है, अमेरिका के साथ बिल्कुल भी सहयोग नहीं करता। सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन इजराइल के खिलाफ अमेरिका की तमाम मुहिम के चलते पड़ोसी जॉर्डन को भी काफी नुकसान उठाना पड़ा है। यही कारण है कि किंग अब्दुल्ला और यहां की जनता अमेरिका और वहां की नीतियों को अपने खिलाफ ही समझती हैं।
ईरान भी उन देशों में शामिल है जो अमेरिका की कोई बात नहीं मानता। यहां के सख्त प्रेसीडेंट हसन रूहानी ने अमेरिकी दबाव के बावजूद US के साथ परमाणु डील साइन नहीं की और लगातार इसका विरोध करता रहा।
चीन और अमेरिका की शायद कभी नहीं बन सकती। एक आर्थिक सुपर पावर है तो दूसरा ह्यूमन सुपर पावर है। चीन जब तब अमेरिकी नीतियों का जबरदस्त विरोध करता रहता है। दोनों ही देश विश्व के अलग अलग देशों में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए झगड़ते ही रहते हैं। पिछले दिनों दक्षिणी चीन सागर को लेकर चाइना के प्रेसिटेंड शी जिनपिंग ने काफी सख्त रुख अपनाया, जिससे दोनों देशो के बीच की खाई और भी गहरी हो गई।
रूस का गठन होने से पहले तक बेलारूस सोवियत संघ का हिस्सा रहा है और काफी अर्से से बेलारूस और यहां के प्रेसिडेंट अलेक्जेंडर लुकाशेन्को अमेरिका का विरोध करते आ रहे हैं। क्रीमिया पर कब्जे को लेकर अमेरिका यूक्रेन का सपोर्ट करता है इसलिए बेलारूस के लिए वो मुश्किले खड़ी रहता है। यही कारण है कि बेलारूस में व्याप्त आर्थिक संकट के लिए जनता और यहां की सरकार अमेरिका को ही दोषी मानती है।
लेबनान में मुस्लिम और क्रिश्चियन मिक्स आबादी रहती है, यहां के प्राइम मिनिस्टर हैं तमाम सलम। इस देश ने अमेरिका के साथ कभी भी मजबूत रिश्ते नहीं बनाए। बीच बीच में कई बार अमेरिका ने लेबनान के हित में कई नीतियां लागू करने की कोशिश भी की, लेकिन देश की जनता और यहां के पीएम ने उन्हें सिरे से खारिज कर दिया।
तजाकिस्तान पूर्व सोवियत यूनियन का देश रहा है। यूनियन खत्म होने के बाद देश के आर्थिक हालात काफी खराब हो गए, ऐसे में रूस का समर्थन करने के अलावा तजाकिस्तान के पास कोई चारा नहीं था। तजाकिस्तान के प्रेसिडेंट इमोमिली रहमान हैं जिन्हें अमेरिका के साथ रिश्ते रखने में कोई इंट्रेस्ट नहीं है। इसी वजह से तजाकिस्तान कभी अमेरिका की परवाह नहीं करता।
ऑस्ट्रिया यूं तो यूरोप का हिस्सा है लेकिन अमेरिका के पक्के विरोधी देशों ईरान और नॉर्थ कोरिया के साथ अच्छे व्यापारिक संबध होने के कारण ऑस्ट्रिया और यहां के प्रेसिडेंट हेंज फिशर को USA के साथ अच्छे रिश्ते रखने का लोभ नहीं है। ऑस्ट्रिया एडॉल्फ हिटलर का बर्थ प्लेस भी रहा है, जिसे अमेरिका से बहुत नफरत थी। यही नफरत आज भी यहां की नस्ल में कुछ हद तक जिंदा है।
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