लहर जिस पर सवार होकर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी धमाकेदार तरीक़े से चुनावी मैदान में उतरी और उसने अबतक की सबसे बड़ी जीत दर्ज की.
कांग्रेस विरोधी लहर से एकजुट मुख्य विपक्ष को हर तरह से फ़ायदा हुआ. हिंदी पट्टी और पश्चिम भारत के कई हिस्सों में भाजपा छा गई जबकि ओडिशा में बीजू जनता दल, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और तमिलनाडु में एआईएडीएमके के सामने कोई नहीं टिक सका.
वहीं आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी और तेलंगाना राष्ट्र समिति ने चुनावों में झंडे गाड़े. अगर राष्ट्रीय स्तर पर कोई लहर दिखती है तो वो है कांग्रेस विरोधी लहर.
2014 का चुनाव कई बातों के लिए याद किया जाएगा.
ढह गई कांग्रेस
कांग्रेस एक तरफ जहां भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी थीं, वहीं उसकी नीतियों पर सवाल उठ रहे थे. नीतिगत ढांचे को तो नई सरकार भी ज्यादा नहीं बदल पाएगी, लेकिन कुछ क्षेत्रों में बड़ी निर्दयता से काम लिया जाएगा.
न तो नव उदारवादी ढांचे में कोई बदलाव आएगा और न ही कॉर्पोरेट कार सेवा बदलेगी. यूपीए के दौर में बिना सोच समझे किए गए विनियमन का ही नतीजा है कि राडिया से लेकर 2जी, केजी, कोलगेट और इस तरह के बीसियों दूसरे घोटाले सामने आए और यूपीए लकवाग्रस्त हो गया.
उद्योगों को मिलने वाली 'मंज़ूरी' की प्रक्रिया धीमी पड़ गई और अदालतें बेहद सक्रिय हो गईं. संसाधन झपटने की प्रक्रिया धीमी पड़ी तो ग़ुस्साए कॉरपोरेट सेक्टर ने मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम जैसे लोगों से दूरी बना ली और मोदी की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देखने लगे. अब देखना है कि कितनी तेज़ी से ये ‘मंजूरियां’ दी जाती हैं.
पी चिदंबरम इसे लेकर ख़ासे नाराज़ भी थे. आखि़रकार उन्होंने उद्योग और व्यवसाय वालों के लिए बहुत कुछ किया था. चुनावों में आधे चरणों का मतदान होने के बाद पी चिदंबरम ने सीएनएन-आईबीएन चैनल से कहा था, “इस देश में सबसे अस्थिर चुनाव क्षेत्र है बिजनेस.”
चिदंबरम ने कांग्रेस विरोधी लहर को काफी पहले ही भांप लिया था. इसीलिए उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा. उनकी सीट से उनके बेटे कार्ती चिदंबरम ने चुनाव लड़े और वो चौथे स्थान पर आए.
एक तरफ़ कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए ने ऐसी नीतियों को अपनाना चाहा जो बड़े औद्योगिक घराने चाहते थे, जबकि दूसरी तरफ जब वो इनकी वजह से दलदल में फंसने लगा तो उद्योग जगत ने सरकार की आलोचना करनी शुरू कर दी और कॉरपोरेट के असर में काम करने वाली मीडिया ने भी सरकार पर तेज़ी से क़दम न उठाने के तोहमत लगाने शुरू कर दिए.
इस चुनावों को 'भारतीय कॉरपोरेट स्टेट' की एकजुटता के लिए भी याद रखा जाएगा.
आंतरिक तौर पर देखें तो कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में ख़ुद को दफ़न करने के लिए ख़ासी मेहनत की है. इन दोनों राज्यों ने अकेले पार्टी को पिछले लोकसभा चुनावों में उससे कहीं ज्यादा सीटें दीं, जो इस चुनाव में कांग्रेस को पूरे देश में मिली हैं.
इन दोनों राज्यों में ऐसे मुख्यमंत्री थोपे गए, जिनकी वजह से पार्टी की बदनामी हुई. इसकी वजह से अन्य राज्यों में भी उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ा.
मोदी की करिश्मा
मुख्य धारा के मीडिया में मोदी लहर की धूम इसलिए मची हुई है कि उन्होंने हिंदी पट्टी और पश्चिमी भारत में ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की है. राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और गुजरात में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर थी. विशाल उत्तर प्रदेश और बिहार में भी कई चीज़ों ने भाजपा की मदद की.
लेकिन ये लहर दक्षिणी राज्यों में एकदम सिमट गई.
केरल में भारतीय जनता पार्टी का खाता भी नहीं खुला. तमिलनाडु में इसके पांच पार्टियों वाले गठबंधन को सिर्फ़ दो सीटें मिलीं. तेलंगाना में इसे सिर्फ़ एक सीट मिली वो भी टीडीपी के साथ गठबंधन करने की वजह से. वहां मोदी और भाजपा का विरोध करने वाली टीआरएस को बड़ी कामयाबी मिली.
सीमांध्र में उसे कुछ सीटें मिली हैं, जिसकी वजह फिर टीडीपी है. क्या मोदी का लहर का फ़ायदा टीडीपी को मिला? टीडीपी ने महीने भर पहले हुए निकाय चुनावों में भी जीत दर्ज की थी. तब भाजपा और टीडीपी में कोई गठबंधन नहीं था और उन्होंने एक दूसरे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था.
कर्नाटक में भी भाजपा को जो जीत मिली, तो उसकी वजह पार्टी में बीएस येदियुरप्पा की वापसी है. कर्नाटक विधानसभा चुनाव में (मोदी के चुनाव प्रचार के बावजूद) उसे हार का सामना करना पड़ा. तब येदियुरप्पा अपनी ख़ुद की पार्टी बना कर चुनावों में उतरे थे.
ओडिशा में नवीन पटनायक की बीजेडी ने 2009 के पिछले चुनावों के मुक़ाबले अपने प्रदर्शऩ को बेहतर किया है. वहां कांग्रेस को भाजपा से ज़्यादा वोट मिले हैं.
अपनी पार्टी की जीत में मोदी का योगदान बस यही है कि उन्होंने कांग्रेस विरोधी आक्रोश को आवाज़ दी. उन्होंने ये काम बड़ी शानदार तरीके़ से किया, लेकिन उन्हीं इलाक़ों में जहां पार्टी पहले से ही मज़बूत थी.
वो मध्य वर्ग के युवाओं को ख़ुद से जोड़ने में भी कामयाब रहे, बल्कि महाराष्ट्र जैसे राज्यों में वो निचले तबके के युवाओं को भी लुभा पाए. लेकिन जिन राज्यों में कांग्रेस विरोधी अन्य ताकतें मौजूद थीं, वहां मोदी का असर सीमित ही रहा है.
चुनावी गणित
राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को 31 प्रतिशत वोट मिले और उसे 282 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस के खाते में 19.3 प्रतिशत वोट आए और उसकी सीटों की संख्या 44 रही. वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन लिखते हैं कि दोनों पार्टियों के बीच 12 प्रतिशत वोटों का अंतर है, लेकिन सीटों में 500 प्रतिशत का अंतर है.
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को 20 प्रतिशत वोट मिले लेकिन सीटों के लिहाज़ से वो खाता भी नहीं खोल पाई. राज्य में कांग्रेस को आठ फ़ीसदी वोट मिले लेकिन उसने दो सीटें जीतीं. वहीं समाजवादी पार्टी को बसपा से 2.6 प्रतिशत ज़्यादा वोट मिले और उसके खाते में पांच लोकसभा सीटें आईं.
दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी को 42 प्रतिशत मत मिले और वो राज्य की 90 प्रतिशत सीटें बुहार ले गई.
सीमांध्र में टीडीपी-भाजपा गठबंधन और वाईएसआरसीपी के बीच सिर्फ एक प्रतिशत वोटों का अंतर रहा. लेकिन गठबंधन को वाईएसआरसीपी के मुकाबले दो गुनी सीटें मिलीं.
तमिलनाडु में डीएमके को 23.6 प्रतिशत वोट मिले लेकिन वो एक भी सीट नहीं जीत पाई. भाजपा के नेतृत्व में पांच पार्टियों वाले गठबंधन को 18.6 प्रतिशत वोटों के साथ दो सीटें मिलीं. कई जगहों पर मुकाबला पांच कोणीय था. चुनावी मैदान में एआईएडीएमके, डीएमके, भाजपा गठबंधन, कांग्रेस और वामपंथी उम्मीदवार मैदान में थे.
लेकिन नतीजों में एआईएडीएमके ने मैदान मार लिया और 44 प्रतिशत वोटों के साथ दो सीटों को छोड़कर सभी 39 सीटों पर जीत का परचम लहराया.
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे को 30 प्रतिशत वोट मिले और उसकी सीटों की संख्या सिर्फ दो रही. कांग्रेस को 10 प्रतिशत से भी कम वोट मिले लेकिन वो चार सीटें जीतने में कामयाब रही. राज्य में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस ने 44 प्रतिशत वोट लेकर 42 में से 34 सीटें जीत लीं.
और अब भविष्य
क्या इस तरह लहरों में ज्यादा दम है? मतदान में हिस्सा लेने वाले 60 प्रतिशत लोगों ने न तो भाजपा को और न उसके सहयोगियों को वोट नहीं दिया है.
इसलिए समय आ गया है कि कुछ हद तक आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाली व्यवस्था को लागू किया जाए. शुरुआत के तौर पर लोकसभा की एक तिहाई सीटों को आनुपातिक प्रतिनिधि व्यवस्था के तहत रखा जाए, जबकि बाक़ी बची सीटें सीधे तौर पर मतदान के ज़रिए तय की जाएं.
नरेंद्र मोदी की अपील कारगर साबित हुई. युवावस्था में कदम रखने वाले लोगों पर उनका ख़ास तौर से असर हुआ. ये लोग नव उदारवाद के परिवेश में जन्मे हैं और उसके अलावा कुछ नहीं जानते हैं.
उनके साथ साथ कुछ प्रौढ़ लोगों को भी विश्वास हो गया कि मोदी लाखों नौकरियां पैदा करेंगे, जिनकी बहुत ज़रूरत है.
मीडिया ने मोदी के ‘विकास पर फोकस’ को खूब उछाला. मोदी ने चुनाव प्रचार में न तो सांप्रदायिक मुद्दे को उठाया और न ही जातिवाद के मुद्दे को. उन्होंने ये काम अमित शाह, गिरिराज सिंह, योगगुरु रामदेव और अन्य लोगों को सौंप दिया.
इस तरह के चुनाव प्रचार के कारण एक डर और अस्थितरता का भाव पैदा हुआ है. वैसे इस तरह की आउटसोर्सिंग संघ परिवार की पुरानी परंपरा है. आखिरकार भाजपा राजनीति में आरएसएस का चेहरा ही तो है.
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