14 साल तक तहसीलदार से लेकर हाईकोर्ट तक चली लड़ाई के बाद अब कहीं जा कर उनकी चार एकड़ ज़मीन वापस करने की प्रक्रिया शुरू की गई है.
हल्का पटवारी द्वारा अदालत में प्रस्तुत अपने 5 जनवरी 2012 के जांच रिपोर्ट में बताया गया कि जानकी बाई की ज़मीन पर मोनेट इस्पात एंड एनर्जी लिमिटेड का क़ब्ज़ा है.
इससे पहले अनुविभागीय अधिकारी ने भी अपने 7 फरवरी 2011 की रिपोर्ट में माना कि उस ज़मीन का इस्तेमाल मोनेट इस्पात के बारूद गोदाम और कॉलोनी की तरफ़ जाने वाली सड़क के रूप में किया जा रहा है.
वहीं 'मोनेट इस्पात' का दावा था कि उसने यह ज़मीन किसी अमर सिंह नाम के व्यक्ति से ख़रीदी है.
कई सालों तक मामला चला और अब अदालत ने जानकी को उनकी ज़मीन लौटाने का आदेश जारी किया है.
रायगढ़ का माहौल
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में आदिवासियों की ज़मीन फ़र्ज़ी और बेनामी तरीक़े से ख़रीदने के सैकड़ों मामलों ने सरकार की नींद उड़ा दी है.
ज़मीन अधिग्रहण में फ़र्ज़ीवाड़े के रोज़ नए-नए मामले सामने आ रहे हैं.
कहीं औद्योगिक घरानों पर किसानों की ज़मीन ज़बरदस्ती हथियाने के भी आरोप लगे हैं, तो कहीं किसी ने फ़र्ज़ी तरीक़े से ज़मीन हथिया ली है.
अब इन मामलों की जांच हो रही है. ऐसे में वो ओद्योगिक घराने सकते में हैं जिन्होंने फ़र्ज़ी तरीक़े से ख़रीदी गई ज़मीन पर करोड़ों रुपए की लागत से अपने उद्योग लगा लिए हैं.
फ़र्ज़ी और बेनामी तरीक़े से ज़मीन ख़रीदने वाले औद्योगिक घरानों में जांच की कार्रवाई शुरू होने के बाद रायगढ़ का माहौल गरम है.
रायगढ़ ज़िले के कलेक्टर मुकेश बंसल का दावा है, "भू राजस्व संहिता की धारा 170-ख के तहत पिछले कुछ महीनों में 261 मामले राजस्व न्यायालय में दर्ज किए गए हैं, जिनमें कंपनियों ने आदिवासियों के नाम से सैकड़ों एकड़ ज़मीन बेनामी तरीक़े से ख़रीदी हैं. इन कंपनियों को नोटिस भी जारी किया गया है."
आदिवासी की ज़मीन
असल में छत्तीसगढ़ भू राजस्व संहिता के अनुसार किसी आदिवासी की ज़मीन को ग़ैर आदिवासी नहीं ख़रीद सकते हैं. इसके लिए कलेक्टर से ख़ास अनुमति लेनी पड़ती है.
इसके अलावा औद्योगिक घरानों को ज़मीन के मालिक को नौकरी देनी पड़ती है, मुआवजा देना पड़ता है और दूसरे मदों से उनके गांव में विकास का काम भी करना पड़ता है.
रायगढ़ में इन सारी ज़रूरी प्रक्रियाओं से बचने के लिए औद्योगिक घराने किसी एक आदिवासी को कुछ हज़ार रुपए दे कर उनके नाम से सैकड़ों आदिवासियों की करोड़ों रुपए की ज़मीनें ख़रीद लेते हैं और उस ख़रीदी गई ज़मीन पर अपना उद्योग खड़ा कर लेते हैं.
बीबीसी हिन्दी के पास जो दस्तावेज़ उपलब्ध हैं, उसके अनुसार कोरबा वेस्ट पावर कंपनी लिमिटेड ने पुसौर के सौ से अधिक आदिवासियों की ज़मीन रोज़गार गारंटी योजना में काम करने वाले और ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले आठ आदिवासियों के नाम पर ख़रीद ली.
इस ज़मीन पर कंपनी का क़ब्ज़ा है और कंपनी ने बाक़ायदा बिजली उत्पादन की प्रक्रिया भी शुरू कर दी है.
केस दर्ज
प्रशासन ने कोरबा वेस्ट पावर कंपनी लिमिटेड के ख़िलाफ़ आदिवासियों की ज़मीन बेनामी तरीक़े से ख़रीदे जाने के मामले में 63 केस दर्ज किए हैं.
अगर इस मामले में आदिवासियों की ज़मीन वापस करने की प्रक्रिया शुरू की गई तो अरबों की लागत से बने कोरबा वेस्ट पावर कंपनी लिमिटेड का क्या होगा?
हाईकोर्ट की अधिवक्ता सुधा भारद्वाज कहती हैं, "क़ानूनन ज़मीन पर फिर से उन्हीं आदिवासियों को क़ब्ज़ा दिया जाना चाहिए, जिनसे फ़र्ज़ी और बेनामी तरीक़े से ज़मीनें ख़रीदी गई हैं. आपराधिक तरीक़े से ख़रीदी गई ज़मीन पर अरबों रुपए ख़र्च करना भी अपराध ही है."
लेकिन बेनामी तरीक़े से ज़मीन ख़रीदने के आरोप का सामना कर रही जिंदल कंपनी ऐसी किसी बेनामी ख़रीदी से साफ़ इंकार करती है.
ज़िंदल पावर लिमिटेड के प्रवक्ता कहते हैं, "जिंदल पावर लिमिटेड किसी भी तरह की बेनामी ख़रीदी के आरोप का पुरज़ोर खंडन करती है.
उन्होंने कहा, "यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सारी ज़मीनें जिंदल पावर लिमिटेड कंपनी के स्वामित्व में हैं. जिंदल पावर लिमिटेड ने ज़मीनें या तो राज्य सरकार के भूमि अधिग्रहण के तहत या सीधे सौदा करके कंपनी के नाम से ख़रीदी है."
ज़मीन से बेदख़ल!
बीबीसी हिन्दी के पास मौजूद ज़मीनों की रजिस्ट्री के कागज़ात संकेत देते हैं कि ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख्त बेनामी तरीक़े से की गई.
ज़मीन ख़रीदने वालों में जिंदल स्टील्स, जिंदल पावर लिमिटेड, गोयल कुनकुनी, राजन कोलवाशरी, शारदा एनर्जी, नव दुर्गा फ्यूल्स जैसी कंपनियां शामिल हैं. सरकार ने इन सबके ख़िलाफ़ नोटिस जारी किया है.
पिछले महीने ऐसे ही एक मामले में रायगढ़ के ही धरमजयगढ़ में एसडीएम केएस मंडावी ने आदिवासियों की ज़मीन फ़र्ज़ी तरीक़े से की गई ज़मीन ख़रीद के एक मामले में शारदा एनर्जी नामक कंपनी के ख़िलाफ़ कार्रवाई की और आदिवासियों को फ़िलहाल 70 एकड़ ज़मीन वापस करने का आदेश दिया है.
तमनार के बरपाली में नवदुर्गा फ्यूल्स से 70 एकड़ और जनडबरी में इसी कंपनी से 38 एकड़ ज़मीन बेनामी तरीक़े से ख़रीदने के आरोप में ज़िला प्रशासन ने कार्रवाई की है और आदिवासियों की ज़मीन वापस करने के निर्देश दिए हैं.
लेकिन यह इतना सरल नहीं है. रायगढ़ में जनचेतना नामक संस्था से संबद्ध राजेश त्रिपाठी का दावा है कि सरकार ने जो 261 मामले दर्ज किए हैं, वे केवल पिछले पांच साल के हैं.
अगर राज्य बनने के बाद से बेनामी ज़मीनों की ख़रीदी के मामलों की पड़ताल की जाए तो कम से कम पांच हज़ार हेक्टेयर ज़मीन किसानों-आदिवासियों से फ़र्ज़ी तरीक़े से ख़रीदने की बात तो आ ही जाएगी.
राजेश कहते हैं, “जांच के बाद सरकार भले आदिवासियों की ज़मीन उन्हें लौटाने के लिए निर्देशित कर देती है. लेकिन एक ग़रीब किसान के लिए संभव नहीं कि उसकी ज़मीन पर काबिज़ किस उद्योग को वहां से हटा सके. सरकार को इस दिशा में पहल करनी चाहिए.”
'छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन' के संयोजक आलोक शुक्ला भी मानते हैं कि रायगढ़, कोरबा और जांजगीर-चांपा ज़िले में अगर औद्योगिक घरानों द्वारा ज़मीनों के अधिग्रहण की स्वतंत्र जांच की जाए तो यह देश में किसी भी घोटाले से कहीं बड़ा मामला साबित होगा.
वे कहते हैं, “सरकार और औद्योगिक घराने आदिवासियों को साजिश के तहत उनके ज़मीन से बेदख़ल कर रहे हैं और आदिवासी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं.”
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