युद्ध भूमि में हुई शहादत
सन 1857 ई. के 'प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम' के अग्रणीय वीरों में उच्च स्थान प्राप्त करने वाले स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे की मौत को लेकर दो धड़े अलग-अलग बंटे हैं। तात्या टोपे के वंशज पराग टोपे ने उनकी फांसी की बात को पूरी तरह से नकार दिया है। पराग ने ‘तात्या टोपेज ऑपरेशन रेड लोटस’ किताब लिखी है जिसमें कई राज सामने आए हैं। पराग टोपे ने बताया कि उनकी रिसर्च के मुताबिक तात्या टोपे को कभी पकड़ा ही नहीं जा सका था, बल्कि उनकी मौत छापामार युद्ध में शहादत से हुई थी। पराग टोपे के मुताबिक तात्या टोपे की मौत मध्यभारत के छिपाबरों में 1 जनवरी 1859 को युद्ध में लड़ते हुए तोप के एक गोले से हुई थी।
फांसी तो बस एक नाटक था
पराग टोपे के मुताबिक तात्या की प्रतीकात्मक फांसी अंग्रेजों की एक जरूरत थी। जिसके बिना 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का अंत कठिन था। उनके मुताबिक अंग्रेजों की इस प्रक्रिया के नाट्य रूपांतर में नरवर के राजा ने एक नरबलि देकर गोरे अंग्रेजों की सहायता की। इस बात का प्रमाण इससे भी मिलता है कि, फांसी लगे व्यक्ति ने अपनी आयु 55 वर्ष बताई थी, जबकि उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार उस वक्त तात्या की उम्र 45-46 वर्ष की होनी चाहिए थी।
क्या कहती हैं अंग्रेजों की कहानी
अंग्रेजों के दस्तावेजों के मुताबिक 7 अप्रैल 1859 को अपने शिविर में सोते हुए तात्या को उनके साथी नरवर के राजा मानसिंह के विश्वासघात की सहायता से अंग्रेजों ने बन्दी बना लिया था। 8 अप्रैल को वे शिवपुरी में जनरल मीड के शिविर में एक युद्धबन्दी थे। 15 अप्रैल 1859 को उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई गयी और 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी जेल की चार नम्बर बैरक में फांसी दी गयी थी। कहा जाता है कि उन्हें दो बार फांसी पर लटकाकर अंग्रेजों ने अपनी संतुष्टि की थी।
तात्या की मौत के बाद भी अंग्रेजों में था खौफ
पराग ने अपनी किताब में जिक्र किया है कि कई ब्रिटिश इतिहासकारों ने भी माना है कि 1857 के संग्राम में अंग्रेजों की हार संभव थी, लेकिन जिस अंदाज में अंग्रेजों ने आम लोगों के खिलाफ मारकाट मचाई और निर्दोषों का नरसंहार किया उससे स्वतंत्रता सेनानियों की मुहीम पर गहरा असर पड़ा। औरतों और बच्चों का कत्ल कर अंग्रेजों ने ग्रामीण जनता में भय फैलाया ताकि वो सेनानियों को रसद मुहैया न कराएं। पराग के मुताबिक तात्या की कथित मृत्यु के बाद भी अंग्रेज सेना तात्या टोपे को लेकर आशंकित रही।
लाल कमल का है यह रहस्य
पराग ने अपनी रिसर्च में उस राज से भी पर्दा उठाया, जिसे जानने के लिए हर कोई व्याकुल था। पराग ने दावा किया कि मैंने इस किताब में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दो प्रतीक चिन्ह ‘लाल कमल’ और ‘रोटी’ के रहस्य को भी सुलझाने की कोशिश की है। अंग्रेजी सेना की एक कंपनी में चार पलटन होती थीं। एक पलटन में 25 से 30 भारतीय सिपाही होते थे और पलटन का अधिकारी सूबेदार होता था, जो किसी भारतीय को अंग्रेजी सेना में मिलने वाला सबसे बड़ा पद होता। विद्रोह से छह महीने पहले दिसंबर 1856 में सभी पलटन को ‘लाल कमल’ भेजा जाता था और मैदान में पलटन को पंक्तिबद्ध करके सूबेदार कमल की एक पंखुड़ी निकालता था और उसे सैनिक पीछे वालों को देते थे। अंत में केवल डंडी बच जाती थी, जिसे वापस लौटा दिया जाता था। उन्होंने बताया डंडी से पता चलता था कि अंग्रेजी सेना की कुल कितनी पलटन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में विद्रोहियों के साथ है और लड़ने वालों की संख्या कितनी है।
रोटी प्रतीक चिन्ह का यह था मतलब
पराग ने दूसरे प्रतीक चिन्ह ‘रोटी’ के बारे में बताया कि चार से छह चपातियाँ गाँव के मुखिया या चौकीदार को पहुँचाई जाती थीं। इसके टुकड़ों को पूरे गाँव में बाँटा जाता था, जिसके जरिये संदेश दिया जाता था कि, सैनिकों के लिए अन्न की व्यवस्था करनी है।
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