स्वामी रामतीर्थ एक बार जापान गए। वहां जब वे सम्राट का बाग देखने गए तो उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि डेढ़-दो सौ वर्ष पुराने चिनार के वृक्षों की ऊंचाई एक-दो बालिश्त के बराबर ही थी। रामतीर्थ ने वहां के माली को इसके बारे में पूछा, उसने बताया, 'आप केवल वृक्ष को देख रहे हैं, जबकि माली उसकी जड़ों को देखता है। हम इन वृक्षों की जड़ों को नीचे बढ़ने ही नहीं देते, उन्हें काटते रहते हैं। जड़ें कटने से वृक्ष ऊपर बढ़ नहीं सकता, क्योंकि जड़ें जितनी गहरी जाएंगी, वृक्ष उतना ही ऊपर बढ़ेगा। यदि पूरे वृक्ष को काट दिया, लेकिन जड़ें सुरक्षित हों, तो उनसे फिर से नया वृक्ष फूट निकलेगा। इसके विपरीत जड़ों को काट डालने से वृक्ष के पनपने की संभावना ही नहीं रह जाती है।'
विचारों में होती हैं आचरण की जड़ें
यह सुन रामतीर्थ सोचने लगे-हम मनुष्यों का भी यही हाल है। हमें किसी व्यक्ति का बाहरी व्यक्तित्व और आचरण तो दिखाई देता है, लेकिन उसके विचार नहीं दिखाई देते। वास्तव में उसके आचरण की जड़ें उसके विचारों में ही होती हैं। यदि सुविचारों की जड़ें काट डाली जाएं, तो वह व्यक्ति विचारहीन हो जाएगा और ऐसा मनुष्य आचरण से भी पंगु बन जाएगा।
जैसा विचार वैसा व्यक्तित्च
हमने अपने विचारों के तल पर मानो आत्मघात कर लिया है। यही कारण है हमारे व्यक्तित्व का कल्पवृक्ष सूखकर ठूंठ हो गया है। लोग यह आशा लगा लेते हैं कि यह ठूंठ फिर से हरा-भरा होकर फल-फूल और छाया देगा। यह उनका भ्रम है।
कथा सार : हमारे जैसे विचार होंगे, हमारा व्यक्तित्व भी वैसा ही होगा।
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