हमारे अंतस को अध्यात्म की मंजिल तभी मिल पाती है, जब हम तीन शब्दों-मन, मौन और मनन को अच्छी तरह आत्मसात कर पाते हैं। तभी हम कर्म और ज्ञान के पाटों के बीच संचालित शरीर को साधना के जरिए बाह्य प्रभावों से मुक्त कर पाते हैं..माघ महीने के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को ऋषियों-मुनियों ने प्राकृतिक शक्ति और ऊर्जा संचय की दृष्टि से सर्वाधिक उपयोगी मानकर इसकी महत्ता पर विशेष जोर दिया है।
पद्मपुराण के उत्तर खंड तथा नारदपुराण के उत्तरभाग सहित अन्य पुराणों में माघ महीने की महिमा विविध कथाओं के माध्यम से वर्णित है। इस महीने में उषाकाल यानी ब्रह्ममुहूर्त में स्नान को महत्वपूर्ण बताया गया है। सृष्टि की शुरुआत ब्रह्मा के मानस पुत्र मनु-शतरूपा से मानी जाती है। इस चिंतन पर गहराई से दृष्टि डाली जाए, तो मनुष्य अपने मन के अनुसार जीवन जीता है। कहा भी गया है, जैसा मन वैसा तन। यह शरीर मन और इंद्रियों द्वारा संचालित होता है। ऋषियों ने माघ महीने में तीर्थ नदियों में सूर्योदय पूर्व स्नान पर इसलिए जोर दिया, क्योंकि यह काल मेडिकल साइंस की दृष्टि से भी तन-मन के लिए सर्वाधिक उपयोगी माना गया है।
माघ माह के कृष्णपक्ष की अमावस्या तिथि द्वापर युग की प्रारंभ तिथि मानी जाती है। द्वापर युग के महानायक योगेश्वर कृष्ण हैं। गीता में त्रिगुणात्मक प्रवृत्तियों सत-रज-तम से ऊपर उठकर स्थितिप्रज्ञ तक पहुंचने का उपदेश श्रीकृष्ण ने दिया है। स्थितप्रज्ञ और मौनव्रत में तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि दोनों में कोई अंतर नहीं है। मन केवल चुप होकर कुछ न बोलने से नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि मन को प्रभावित करने वाली पांचों ज्ञानेंद्रियों को युद्ध के लिए तैयार करने के प्रतीक रूप में भी देखा जाना चाहिए। आंख, कान, नाक, जीभ और स्पर्श बुरी चीजों और बातों के खिलाफ जब आंदोलन करे, तब वही वास्तविक मौन है।
सारे धर्मग्रंथों में पाप से मुक्ति और स्वर्ग की प्राप्ति का जो उल्लेख है, वह किसी अदृश्य लोक का नहीं, बल्कि बाह्य जगत के विकारों से तन के अप्रभावित रहने पर मिलता है। कुप्रवृत्तियों के दुष्प्रभाव से लेकर ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मन को अधोगामी होने से रोकने पर मन-मस्तिष्क में उल्लास और परम आनंद की अनुभूति होती है। गोस्वामी तुलसीदास 'दीनदयाल विरद संभारी, हरहु नाथ मम संकट भारी' चौपाई में किसी अदृश्य दीनदयाल नहीं, बल्कि पांच अक्षरों के रूप में पंच ज्ञानेंद्रियों में ही भगवत-सत्ता का दर्शन करते प्रतीत होते हैं और काम-क्रोध, मोह-लोभ रूपी संकट से बचने का सरल उपाय और समाधान बताते दिखाई पड़ते हैं।
मौनी अमावस्या से स्पष्ट है कि यह पर्व बाह्य जगत से अंतर्जगत की ओर ले जाने वाला पर्व है। इंद्रियां यदि मौन होती हैं, तभी मन भी मौन रहता है। मन पर विराम न रहने पर चाहकर भी मौन नहीं रहा जा सकता। एकांत में बैठकर भी मौन रहना कठिन है। इस पर्व पर तीन शब्दों पर गौर करने की जरूरत है। पहला मन, दूसरा मौन, तीसरा मनन। मन दो अक्षरों का, मौन ढाई और मनन तीन अक्षरों का शब्द है।
कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों के इन दो पाटों के बीच संचालित शरीर को साधना के जरिए बाह्य प्रभावों से मुक्त करने का प्रयास करना चाहिए। तभी ढाई अक्षर के मौन की मंजिल हासिल होगी। मन को साधते ही जब मनन की प्रक्रिया शुरू होने लगती है, तब अंतर्जगत में अमृत वर्षा का अनुभव होता है, जो बाह्य जगत के किसी भी पदार्थ की प्राप्ति से बढ़कर है। पतंजलि के योग सिद्धांत के अनुसार, उथल-पुथल भरे वातावरण में मौन साधते रहने से शरीर के मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक के सभी षट्चक्र प्राकृतिक ऊर्जा संग्रहीत करने लगते हैं। तभी ऋषियों और मुनियों ने माघ महीने में सर्वाधिक 'हरिओम' की कृपा का काल माना। चंद्र वर्ष का यह दसवां महीना जरूर दसों इंद्रियों को ऊर्जावान बनाने का महीना है।
सामवेद में ऊर्जा के प्रथम स्त्रोत भगवान भाष्कर की आराधना की गई है। इसी वेद के आग्नेय पर्व में अग्नि से संबंधित ऋचाएं हैं। 'हे अग्ने! पाप से हमारी रक्षा कर और हमारे हिंसात्मक विचारों को अपने तेज से भस्म कर' की प्रार्थना का उद्देश्य ही शरीर में ऊर्जा संचयन से है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी 'वेदों में सामवेद हूं' कहकर यह संदेश दिया कि ऊर्जा संचयन से मन-मष्तिष्क में गीत-संगीत की धारा प्रवाहित होती है। मौन व्रत में तन-मन को लाभ पहुंचता है। इसलिए ऋषियों ने माघ महीने में व्रत-उपवास तथा सूर्योदय पूर्व स्नान का विधान किया।
सूर्योदय पूर्व स्नान की महत्ता पर महाभारत ग्रंथ के अनुशासन पर्व में शरशय्या पर लेटे हुए भीष्म ने युधिष्ठिर को भगीरथ की साधना के बारे में बताया तथा उनके 'अनशन-व्रत' का उल्लेख किया। भीष्म ने बताया कि सिर्फ ब्रह्म मुहूर्त में स्नान और संयमित जीवन से वे देवताओं को मिलने वाले लोक से भी श्रेष्ठ ब्रह्म लोक पहुंच गए, जबकि यह ब्रह्म लोक सिर्फ महर्षियों को ही मिलता है। विद्वानों ने कहा है कि यदि बोलना एक कला है, तो मौन उससे भी उत्तम कला है। मौन की शक्ति का उदाहरण त्रेतायुग में भी देखने को मिलता है। कथा है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को राजा दशरथ ने जब वनवास दिया, तो अयोध्या की जनता व्याकुल हो गई। सुध-बुध खो बैठी। इस स्थिति में अंसतुलित जनता कुछ बोल न सकी। मौनव्रत धारण कर लिया। जनता के मौन से इतनी ऊर्जा निकली कि चक्रवर्ती सम्राट राजा दशरथ उस शक्ति को झेल नहीं सके और उन्हें प्राण त्याग करना पड़ गया। श्रीदुर्गा सप्तशती में मौन की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है।
मौन की महत्ता का उदाहरण प्रथम देव श्रीगणेश जी से भी मिलता है। वेदव्यास जी ने जब पुराणों की रचना का मन बनाया तो कुछ न बोलने की शर्त रखी गई। आशय निकलता है कि किसी बड़ी उपलब्धि के लिए वाचाल नहीं, बल्कि मौन होकर कार्य किया जाना चाहिए। मौन एकाग्रता के भाव को विकसित करता है। जितने भी आविष्कार हुए, सब वैज्ञानिकों और चिंतकों की एकाग्र साधना के कारण संभव हुए। इसी एकाग्रता के चलते द्वापर युग में अर्जुन श्रेष्ठ धनुर्धर हुए, तो अर्जुन के इसी भाव का अनुकरण कर एकलव्य भी अर्जुन की टक्कर लेने वाला धनुर्धर साबित हुआ।
कथा है कि समाधि के देवता भगवान शंकर की अमरकथा सुनते-सुनते माता पार्वती को भी मौन की अनुभूति हुई और वह भी समाधि में चली गईं और अमरकथा शुकदेव के हिस्से में आ गई। माघ के सुहावने महीने में कल्पवास का विधान है। एक माह भारी संख्या में श्रद्धालुओं तथा ऋषियों-मुनियों के सामीप्य से भी सकारात्मक प्राप्त होती है। पुराणों में कहा गया है कि कल्पवास करने से सात पीढ़ी का उद्धार होता है। माघ महीने में जहां पवित्र नदियां पश्चिम और उत्तर वाहिनी हुई हैं, उसमें स्नान को भी श्रेष्ठ कहा गया है। इसी के साथ कुरुक्षेत्र स्नान से श्रेष्ठ, विंध्यपर्वत को स्पर्श करने वाली नदी और उससे भी श्रेष्ठ बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी से भी उत्तमोत्तम स्थान तीर्थराज प्रयाग में स्नान, साधना, हवन-पूजन और कल्पवास कहा गया है।
सलिल पांडेय, लेख आध्यात्मिक चिंतक हैं।
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