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KANPUR: धन हमें स्वतंत्रता व स्वामित्व का अहसास कराता है। हमें लगने लगता है कि धन से हम कुछ भी पा सकते हैं और किसी की भी सेवाओं का मूल्य तय कर सकते हैं। किसी भी वस्तु का स्वामित्व होने का अर्थ है उसके अस्तित्व को पूर्ण रूप से नियंत्रित करना, उसके आरंभ से लेकर अंत तक। आप किसी ऐसी वस्तु को कैसे नियंत्रित करेंगे जो आपसे भी लंबे समय तक जीवित है?
धन होने से आते हैं बलवान और स्वतंत्र होने के विचार
धन से हमें यह विचार भी आने लगते हैं कि हम बलवान और स्वतंत्र हैं और हम इस बात के प्रति अंधे हो जाते हैं कि यह विश्व परस्पर सहयोग और निर्भरता से ही चलता है। इस निर्भरता का ज्ञान हमें विनम्र बनाता है। जब लोग दिव्यता में और समाज की अच्छाई में आस्था खो देते हैं, तब वह असुरक्षित महसूस करते हैं। ऐसी अवस्था में, केवल धन के सुरक्षित रहने का माध्यम प्रतीत होता है। धन होने से स्वतंत्रता का भ्रम होता है, इसी वजह से धन को माया कहा जाता है: मियते अनाया इति माया अर्थात हर वह वस्तु जिसे नापा जा सकता है, वह माया है। मानवता के मूल्य समाप्त होने लगते हैं जब आप उन सब चीजों की भी कीमत लगाने लगते हैं जिन्हें नापा नहीं जा सकता, जैसे कि सत्य और जीवन। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो समाज की सभी बुराइयों का कारण धन को मानते हैं। केवल धन होने से अहंकार नहीं आता, उसकी अस्वीकृति से भी अहंकार आता है। हमारे ऋषि कभी भी धन या माया का अनादर नहीं करते थे। वे इन्हें दिव्यता का ही एक अंग स्वीकार करते थे। इसी कारण वे इस माया की पकड़ से परे थे।
धन से सबकुछ नहीं हो सकता नियंत्रण
वे धन को देवी लक्ष्मी का स्वरूप मानते थे, योग से जन्मा हुआ। इसी योग की बुद्धिमत्ता है जो अहंकार को आत्मविश्वास में परिवर्तित करती है, निर्भरता के बोझ से परस्पर सहयोग की ओर ले जाती है, मुक्ति की चाह से असीमता के एहसास की ओर ले जाती है, सीमित स्वामित्व से पूर्णता से एकता की ओर ले जाती है। धन हमें स्वतंत्रता व स्वामित्व का अहसास कराता है। हमें लगने लगता है कि धन से हम कुछ भी पा सकते हैं और किसी की भी सेवाओं का मूल्य तय कर सकते हैं। किसी भी वस्तु का स्वामित्व होने का अर्थ है उसके अस्तित्व को पूर्ण रूप से नियंत्रित करना, उसके आरंभ से लेकर अंत तक। आप किसी ऐसी वस्तु को कैसे नियंत्रित करेंगे जो आपसे भी लंबे समय तक जीवित है?
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दुनिया प्रेम और निर्भरता से चलती है धन से नहीं
धन से हमें यह विचार भी आने लगते हैं कि हम बलवान और स्वतंत्र हैं और हम इस बात के प्रति अंधे हो जाते हैं कि यह विश्व परस्पर सहयोग और निर्भरता से ही चलता है। इस निर्भरता का ज्ञान हमें विनम्र बनाता है। जब लोग दिव्यता में और समाज की अच्छाई में आस्था खो देते हैं तब वह असुरक्षित महसूस करते हैं। ऐसी अवस्था में, केवल धन की सुरक्षित रहने का माध्यम प्रतीत होता है। धन होने से स्वतन्त्रता का भ्रम होता है, इसी वजह से धन को माया कहा जाता है: मियते अनाया इति माया अर्थात हर वह वस्तु जिसे नापा जा सकता है, वह माया है। मानवता के मूल्य समाप्त होने लगते हैं जब आप उन सब चीज़ों की भी कीमत लगाने लगते हैं जिन्हें नापा नहीं जा सकता, जैसे कि सत्य और जीवन।
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