कानपुर। ललाट आदि सभी निर्दिष्ट स्थानों में जो भस्म या चंदन से तीन तिरछी रेखाएं बनाई जाती हैं, उन्हीं को विद्वानों ने त्रिपुण्ड कहा है। भौहों के मध्य भाग से लेकर जहां तक भौहों का अंत है, उतना बड़ा त्रिपुण्ड ललाट में धारण करना चाहिए । मध्यमा और अनामिका अंगुली से दो रेखाएं करके बीच में अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोम भाव से की गई रेखा त्रिपुण्ड कहलाती है।

बीच की तीन अंगुलियों से ऐसे लगाएं त्रिपुण्ड

बीच की तीन अंगुलियों से भस्म लेकर यत्नपूर्वक भक्ति भाव से ललाट में त्रिपुण्ड्र धारण करें। त्रिपुण्ड्र अत्यंत उत्तम तथा भोग और मोक्ष को देने वाला है। त्रिपुंड की  तीनों रेखाओं में से प्रत्येक के नौ, नौ, देवता हैं जो सभी अंगों में स्थित हैं। श्रेष्ठ महर्षियों ने यह बताया है कि द्विजों को वैदिक मंत्र के उच्चारण पूर्वक भस्म धारण करना चाहिए। दूसरे लोगों के लिए बिना मंत्र के ही केवल धारण करने का विधान है । जले हुए गोबर से प्रगट होने वाला भस्म आग्नेय कहलाता है। वह भी त्रिपुण्ड का द्रव्य है, ऐसा कहा गया है। अग्निहोत्र से उत्पन्न हुए भस्म का भी मनीषी पुरुषों को संग्रह करना चाहिए। अन्य यज्ञ से प्रकट हुआ भस्म भी त्रिपुण्ड धारण के काम आ सकता है । जाबालोपनिषद  में आए हुए 'अग्नि :' इत्यादि सात मंत्रों द्वारा जल मिश्रित भस्म से धूलन (विभिन्न अंगो मे मर्दन या लेपन) करना चाहिये।

shravan 2019: शरीर के इन अंगों में भस्म से लगाएं त्रिपुण्ड,भगवान शिव जरूर देंगे भोग और मोक्ष का वरदान

त्रिपुण्ड्र का महत्व

महर्षि जाबालि ने सभी वर्णों और आश्रमों के लिए मंत्र से या बिना मंत्र के भी आदरपूर्वक भस्म से त्रिपुण्ड लगाने की आवश्यकता बताई है। समस्त अंगों में सजल भस्म को मलना अथवा विभिन्न अंगों में तिरछा त्रिपुण्ड लगाना इन कार्यों को मोक्षार्थी पुरुष गलती से भी ना छोड़े, ऐसा श्रुति का आदेश है । भगवान शिव और विष्णु ने भी तिर्यक त्रिपुण्ड धारण किया है। अन्य देवियों सहित भगवती उमा और लक्ष्मी देवी ने भी वाणी द्वारा इसकी प्रशंसा की है। ब्राम्हणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, वर्णसंकरों  तथा जाति भ्रष्ट पुरुषों ने भी उद्धूलन एवं त्रिपुण्ड के रूप में भस्म धारण किया है।

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त्रिपुण्ड धारण करने से पुरूषों को मिलेगा भोग और मोक्ष

इस प्रकार स्थान- देवताओं को उत्तम भक्ति भाव से नित्य नमस्कार करके स्नान आदि से शुद्ध होता है। पुरुष यदि त्रिपुण्ड धारण करें तो भोग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है। ये सम्पूर्ण अंगों में स्थान देवता बताए गए हैं। मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों नासिका, मुख, कंठ, दोनों हाथ, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, ह्रदय, दोनों पार्श्वभाग, नाभि, दोनों अंडकोष, दोनों उरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिंडली, और दोनों पैर ये बत्तीस उत्तम स्थान हैं। इनमें क्रमशः अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, दस दिक्प्रदेश, दस दिक्पाल, तथा आठ वसुओं का निवास है। धर, ध्रुव, सोम, आप, अनिल, अनल, प्रत्यष, और प्रभास यह आठ वसु कहे गए हैं। इन सबका नाम मात्र लेकर इनके स्थानों में विद्वान पुरुष त्रिपुण्ड धारण करें।

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शरीर के 16 अंगो पर धारण करें त्रिपुण्ड, ये 16 देवता होंगे खुश

एकाग्रचित हो कर सोलह स्थान में ही त्रिपुण्ड धारण करें। मस्तक, ललाट ,कंठ, दोनों कंधों, दोनों भुजाओं, दोनों कोहनियों, तथा दोनों कलाइयों में, ह्रदय में, नाभि में, दोनों पसलियों, में तथा पृष्ठभाग में त्रिपुण्ड लगाकर वहां दोनों अश्विनी कुमारों का, शिव, शक्ति, रुद्र, ईश, तथा नारद का और वामा आदि नौ शक्तियों का पूजन करें। यह सब मिलकर सोलह देवता हैं।अश्विनी कुमार दो कहे गए हैं। नासत्य और दस्त्र अथवा मस्तक, केश, दोनों कान, मुख, दोनों भुजा, ह्रदय, नाभि, दोनों उरु, दोनों जानू ,दोनों पैर, पृष्ठभाग, इन सोलह स्थानों में सोलह त्रिपुण्ड का न्यास करें। मस्तक में शिव, केश में चंद्रमा, दोनों कानों में रूद्र, और ब्रह्मा, मुख में विघ्नराज गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु, और लक्ष्मी ह्रदय में शंभू, नाभि में प्रजापति, दोनों उरुओं में नाग और नागकन्याएँ दोनों घुटनों में ऋषिकाएँ, दोनों पैरों में समुद्र, तथा विशाल पृष्ठभाग में सम्पूर्ण तीर्थ देवता रूप से विराजमान हैं । इस प्रकार सोलह स्थानों का परिचय दिया गया।

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शरीर में यहां हैं बाकी के आठ देवता, ये मंत्र पढ़ते हुए ही लगाएं त्रिपुण्ड

अब आठ स्थान बताए जाते हैं।  गुह्य  स्थान, ललाट, परम उत्तम कर्ण युगल, दोनों कंधे, हृदय, और नाभि यह आठ स्थान हैं इनमें ब्रह्मा तथा सप्तर्षि ये आठ देवता बताए गए हैं। भस्म के स्थान को जानने वाले विद्वानों ने इस तरह आठ स्थानों का परिचय दिया है अथवा मस्तक, दोनों भुजाएं, हृदय, और नाभि,- इन पांच स्थानों को  भस्मवेत्ता पुरुषों ने भस्म धारण के योग्य बताया है। यथासंभव देश, काल  आदि की अपेक्षा रखते हुए भस्म को अभिमंत्रित करना और जल में मिलाना आदि कार्य करें। त्रिनेत्रधारी, तीनों गुणों के आधार, तथा तीनों देवताओं के जनक, भगवान शिव का स्मरण करते हुए नमः शिवाय कह कर ललाट में त्रिपुण्ड्र लगाएं। 'ईशाभ्यां नमः'  ऐसा कहकर दोनों पार्श्व भागों में त्रिपुण्ड्र धारण करें। बीजाभ्यां नम: कहकर दोनों कलाइयों में भस्म लगावें।  पितृभ्यां नमः कहकर नीचे के अंग में,  उमेशाभ्यां नम:  कहकर ऊपर के अंग में,  भीमाय नमः कह कर पीठ में और सिर के पिछले भाग में त्रिपुंड लगाना चाहिए।  

ज्योतिषाचार्य पंडित गणेश प्रसाद मिश्र

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