प्रश्न: दुख से मुक्ति कैसे मिले?
दुख ने तुम्हें बांधा नहीं है; दुख से तुम बंधे हो। दुख ऐसी जंजीर नहीं है, जो किसी और ने तुम्हारे हाथों में डाली हो। दुख ऐसा आभूषण है, जो तुमने खुद शौक से पहना है। यह तो पहली बात तुम ठीक से समझ लो। अक्सर हम ऐसे ही कहते हैं: दुख से छुटकारा कैसे मिले, जैसे कि दुख ने तुम्हें बांध रखा है। जैसे कि किसी और ने तुम पर दुख लाद रखा है. नहीं, ऐसा नहीं है। तुम दुख को पकड़े हो। तुम दुख छोड़ते नहीं।
दुख भरे रहता है मन को; ऐसा लगता है- कुछ है। पास कुछ है। आदमी बहुत डरता है- दुख छूटने लगे तो। बहुत घबड़ाता है। घबड़ाहट इसलिए कि दुख के कारण जीवन में कुछ व्यस्तता बनी रहती है; कुछ करता हुआ मालूमपड़ता है; कुछ होता हुआ मालूम पड़ता है। और दुख के कारण अहंकार भी बचा रहता है। ख्याल रखना: अगर अहंकार बचाना हो, तो दुख में ही बचाया जा सकता है। दुख खाद है, अहंकार की। सुखी आदमी का अहंकार खो जाता है। सुख हो नहीं सकता- बिना अहंकार के खोए। जब तक मैं की अकड़ है, तब तक दुख। तुमने भी अनुभव किया होगा: कभी जब तुम प्रफुल्लित होते हो, तो अहंकार नहीं होता। जब तुम उदास होते हो, तब ज्यादा अहंकार होता है। इसलिए तो तुम्हारे तथाकथित तपस्वी साधु-संन्यासी बड़े उदास और लंबे चेहरे बनाए रहते हैं। यह अहंकार को बचाने की तरकीब है। दुनिया को वे यह कह रहे हैं कि हम कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। तुम सब पापी, हम पुण्यात्मा! तुम सब सड़ रहे हो नरक में, और हम स्वर्ग की तरफ जा रहे हैं! हम विशिष्ट! हम पवित्र! हम श्रेष्ठ!
हंसी में भूल जाता है अहंकार
आनंद जब आता है, तो तुम भूल ही जाते हो कि तुम हो। हंसी में भूल जाता है अहंकार; रोने में सघन हो जाता है। इसे जांचना, इसे पहचानना। जब तुम हंसते हो, तब तुम नहीं होते हो, इसका निरीक्षण करना। जब हंसी सच में ही फैल जाती है प्राणपन में, तुम्हारा रोआं हंसी में भर जाता है, इस क्षण तुम नहीं होते हो; तुम हो नहीं सकते क्योंकि होने के लिए जैसा तनाव चाहिए, वह तनाव ही नहीं है। हंसी में कहां तनाव? इसलिए तो मैं कहता हूं कि संन्यासी हंसता हुआ होना चाहिए, नाचता हुआ होना चाहिए, प्रफुल्लित, तोही निर-अहंकारी होगा।
दुख से मुक्ति कैसे?
पूछा तुमने: दुख से मुक्ति कैसे मिले? समझो: दुख को तुमने पकड़ा है। दुख से तुम कुछ लाभ ले रहे हो-अहंकार का लाभ ले रहे हो। दुख के कारण तुम अनुभव कर रहे हो: मैं कुछ विशिष्ट हूं। देखो, कितना दुख झेल रहा हूं। दुख तुम्हें शहीद होने का मजा दे रहा है कि तुम शहीद हो; कि सारी दुनिया का दुख-भार उठाए चल रहे हो! पति ऐसे चलता है, जैसे पत्नी का दुख-भार ढो रहा है। बच्चों का दुख-भार ढो रहा है। पत्नी दुख में बैठी है क्योंकि वह देखती है कि वह पति को संभाल रही है, नहीं तो कभी के भ्रष्ट हो गए होते! बच्चों को संभाल रही है। घर संभाल रही है। मेरे बिना दुनिया अस्त-व्यस्त हो जाएगी- ऐसा अहंकार तुम्हें दुखी बना रहा है। और फिर दुख से लडऩे का भी एक मजा है। मगर लडऩे के लिए दुख होना चाहिए। आदमी लड़ाई में बड़ा रस लेता है, क्योंकि लड़ाई में जीत की आशा है।
इंसान स्वयं दुख बनाता है
अगर दुख न हो, तो किससे लड़ोगे? और लड़ोगे नहीं, तो जीतोगे कैसे? और जीतोगे नहीं तो अहंकार की प्रतिष्ठा कहां होगी? यह सारी व्यवस्था समझना। एक दुख जाता है, तुम दूसरा बना लेते हो। तुम्हारे पास हजार रुपए हैं, तुम कहते हो: दस हजार हो जाएं; बस, फिर निश्चिंत हो जाऊंगा। तुम क्या कर रहे हो? यह दुख तुमने पैदा कर लिया। हजार का सुख तो नहीं उठाया, दस हजार का दुख पैदा कर लिया। अब यह दुख कहीं भी नहीं है, सिर्फ तुम्हारी कल्पना में है, कामना में है, वासना में है। अब तुम लगे दौडऩे कि कैसे दस हजार हो जाएं! एक दिन दस हजार भी हो जाएंगे, लेकिन उस दिन तुम कहोगे अब लाख के बिना काम नहीं चलेगा। और निश्चित ही जिस आदमी के पास हजार रुपए थे, उसकी आकांक्षाएं बहुत से बहुत दस हजार तक दौड़ सकती थीं, वह भी जानता था, इससे ज्यादा की आकांक्षा करना सीमा के बाहर जाना होगा।
सुख का उपाय
दुख से मुक्त होना है, तो सीध कोई उपाय नहीं है। वासनाओं को समझो और अब वासनाएं मत फैलाओ। सुख का उपाय है: जो है, उसका आनंद लो। जो नहीं है, उसकी चिंता न करो। दुख का उपाय है: जो है, उसकी तो फिक्र ही मत लो। जो नहीं है, उसकी चिंता करो। दुख का अर्थ है: अभाव पर ध्यान रखो, भाव को भूलो। सुख का सूत्र है: जो तुम्हारे पास है, उसके लिए परमात्मा को धन्यवाद दो। जो है- वह पर्याप्त है।
ओशो
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