निर्मल होने पर ही मन में ईश्वर का निवास होता है। मन जो कार्य करने के लिए अंत:करण से तैयार हो, वही उचित है। यदि मन सही है, तो कठौते के जल में ही गंगा में डुबकी का पुण्य फल प्राप्त हो सकता है। यह है संत रविदास जी का दर्शन। मन को स्थिर करने और भक्ति की धारा में समयबद्धता व वचन को लेकर अडिग रहने की जरूरत को संत रविदास जी ने सिर्फ बताया ही नहीं, बल्कि छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से करके भी दिखाया। कर्म ही धर्म
उन्होंने कर्म को ही धर्म बताया तथा श्रम को परमपिता परमात्मा की साधना-आराधना से जोड़ा। संत रविदास भक्ति आंदोलन के ऐसे संत हैं, जिन्होंने अपने कृतित्व ही नहीं व्यक्तित्व से भी श्रम की महत्ता को प्रसारित किया। पाखंड और असमानता के तिमिर से घिरे तत्कालीन समाज में उन्होंने अपनी रचनाओं से भक्ति और ज्ञान का उजास भरने का प्रयास किया।
कर्म को देते थे प्राथमिकता
रविदास अपने पद 'मन ही पूजा मन ही धूप, मन ही सेऊं सहज सरूप..' से इस राह पर चलने के लिए जिस तत्व की जरूरत बताते हैं, वह है-मन की निर्मलता, ताकि उसमें परमपिता को विराजमान कराया जा सके। एक प्रसंग है कि वे किसी पर्व पर पड़ोसियों व शिष्यों के गंगा स्नान के लिए चलने के आग्रह को बड़ी ही विनम्रता से ठुकराते हैं। पुण्य के लिए इससे भी कहीं अधिक वे अपना काम पूरा करने के वादे को निभाने की बात कहते हैं।
'मन चंगा तो कठौती में गंगा'
वे गंगा स्नान के लिए आग्रह कर रहे लोगों से बताते हैं कि आज उन्होंने अपना काम पूरा नहीं किया, तो उनका वचन भंग हो जाएगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर भी मन यदि यहां ही लगा रहेगा, तो भला पुण्य कैसे प्राप्त होगा? मन जो कार्य करने के लिए अंत:करण से तैयार हो, वही उचित है। मन सही है, तो इस कठौते के जल में ही गंगा में डुबकी का पुण्य फल प्राप्त हो सकता है। इसी प्रसंग ने 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' कहावत को जन्म दिया।
संत रविदास की धर्म निष्ठा कर्म में ही समाहित है। ऐसा न होता, तो भला गुरु के दुर्दिन दूर करने के लिए शिष्या मीराबाई द्वारा एक साधु के हाथों भेजा पारसमणि वे कैसे भूल जाते? वर्ष भर बाद उनकी सुख-समृद्धि और रंग-ढंग देख लेने के लिए लौटे साधु की जिज्ञासा के पट बरबस ही खुल जाते हैं, जब वे बताते हैं कि उन्हें झोपड़ी में खोसी गई पारसमणि कार्यों में तल्लीनता के कारण याद न रही।
कर्म पथ पर श्रम की महत्ता
संत रविदास निर्विकार भाव से कहते हैं कि मीरा बाई की पारसमणि सभी के भाग्य में नहीं हो सकती है? वे बेबाकी से कहते हैं कि मैं पसीने को पारस बनाता हूं। ये सभी के पास हो सकता है और किसी का भी दिन बदल सकता है। संत रविदास का मानना है कि कोई भी कर्म या कला मानव को संस्कृति और व्यक्तित्व देती है। इसलिए उसका आधार कभी निम्न नहीं हो सकता है। वे कहते हैं कि निरंतर कर्म पथ पर बढ़ते रहने पर सामान्य मनुष्य को भी मोक्ष की राह दिखाई दे सकती है। इसलिए अपनी रचनाओं में वे किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए श्रम को ही मुख्य आधार बताते हैं। एक पद में वह नाम की महत्ता बताते हुए राम नाम के जप पर जोर देते हैं, जिससे सगुण ब्रह्म की शक्तिशाली सत्ता का मोह टूट जाता है और समानता का नारा बुलंद होता है।
'प्रभु जी तुम चंदन हम पानी..' के भाव में डूबे रविदास
रविदास इस बात को समझते हैं कि सगुण अवतार जहां शासन व्यवस्था को जन्म देता है, वहीं निर्गुण राम समानता के संग खड़े हो जाते हैं, जो अपनी चेतना में एक आधुनिक मानस को निर्मित करते हैं। 'नामु तेरो आरती भजनु मुरारे, हरि के नाम बिनु झूठै सगल पसारे ..' जैसे पद से संत रविदास तत्कालीन शक्तिशाली प्रभुता को उसके अहंकार का बोध कराते हैं और समदृष्टि वालों का आह्वान करते हुए हर दौर के लिए प्रासंगिक बन जाते हैं। संत रविदास आजीवन ऐसे ही आदर्श समाज की संरचना में संलग्न रहे, जहां घृणा, भेदभाव-वैमनस्य का स्थान न हो। वे हमेशा 'प्रभु जी तुम चंदन हम पानी..' के भाव में ही डूबे रहते हैं।
संत रविदास की जन्मभूमि पर उमड़ा अनुयायियों का रेला
संत रविदास वाराणसी में गंगा किनारे सीर गोवर्धन गांव में जन्मे, वहीं पले-बढ़े और अपना सांसारिक कर्म करते हुए परमपिता परमात्मा से डोर जोड़े रखा। उन्होंने हमेशा एक भेदभावमुक्त समाज के लिए रास्ता बनाया। आज माघ पूर्णिमा पर उनकी जयंती मनाने सीर गोवर्धन गांव में रेला-सा उमड़ पड़ा है। इसमें पंजाब, हरियाणा समेत कश्मीर से कन्याकुमारी तक ही नहीं, विदेश से भी अप्रवासी अनुयायियों की आस्था का सागर उमड़ पड़ा है। स्वाभिमान के आसमान से जुड़ी श्रद्धा के बूते उनके मंदिर को स्वर्णमय करने की कवायद की जा रही है। इसे देखते हुए प्रदेश सरकार ने भी उनकी जन्म स्थली को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने का खाका खींचा है।
प्रमोद यादव, वाराणसी
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