खुर्शीद की बीबीसी से बातचीत के अंश.
इन चुनावों में कांग्रेस के सामने चुनौती क्या रही? सत्ता विरोधी भावना (एंटी इनकंबेंसी) या मोदी लहर?
देखिए चुनाव अभियान के दौरान हमने देखा है कि मोदी की कोई लहर नहीं है. कोशिश बहुत की गई कि इसे लहर बनाया जाए- लेकिन मोदी की लहर है नहीं. यहां पर तो लोगों के गले में ठूंसा जा रहा था मोदी.
वह सब होने के बाद, अगर हम एग्ज़िट पोल के नतीजों को एक बार मान भी लें तो भी ये सिर्फ़ ढैया तक पहुंचे हैं- 272 छूने तक पहुंचे हैं. यह लहर तो नहीं हुई. लहर में तो 300, साढ़े तीन सौ, पौने चार सौ का आंकड़ा होना चाहिए.
मोदी खुद कह रहे थे कि हमें 350 आ रहे हैं. एक भी चैनल कहने को तैयार नहीं है कि उनको 300 आ रहे हैं. तो यह लहर नहीं हो सकती. अब वह कितने ले पाएँगे और हमें कितने मिलेंगे यह तो 16 तारीख को ही पता चलेगा.
चुनौती क्या रही आपके सामने?
चुनौती सबसे बड़ी यह थी हम दस साल सत्ता में रह चुके थे. अक्सर यह होता है कि दस साल बाद लोग थक जाते हैं, ऊब जाते हैं, नए लोग आते हैं, कहते हैं कि हमें मौक़ा दीजिए. इतना वक़्त गुज़रने पर दूसरे लोगों की शिकायतें लोग भूल भी जाते हैं, भूलना चाहते हैं. यह सोचते हैं कि न भूलें तो आगे बढ़ना हमारे लिए मुमकिन नहीं होगा.
हमारे सामने जो चुनौती रही है, आज से नहीं 20-25 सालों से, वह यह है कि केंद्र में हमारा प्रभाव रहा और प्रादेशिक राजनीति में हमारे प्रभाव की कमी रही क्योंकि हर जगह एक क्षेत्रीय स्तर का नेता खड़ा हुआ और उसने वहां की बात की.
यह चुनौती रही है हमारे सामने लेकिन अब ऐसा लगता है कि केंद्र में उसकी परछाई आ गई है, आम आदमी पार्टी के आने की वजह से. दिल्ली में वह घुसे और उन्होंने उन लोगों- गरीब, पिछड़े, मध्यवर्गीय लोगों में सेंध लगाई और उनमें घुसे.
उन्होंने जो नुक़सान किया वह तो दिल्ली तक रहा लेकिन उसका बखान पूरे देश में करके उन्होंने एक बेचैनी सी फैला दी. बेचैनी से ज़्यादा एक नई क़िस्म की तहज़ीब या तहज़ीब की कमी कह लीजिए उसको, पूरे (समाज) में उन्होंने फैलाई- कि हर जगह सवाल पूछना है, हर जगह विरोध करना है, जो पुराने सिस्टम हैं उन पर सवालिया निशान लगाना है.
इसके चलते हमारे काम करने के तरीके में थोड़ा बिखराव आया, थोड़ा असमंजस आया. हम चारों तरफ़ से इस कदर दुश्मनों से घिर गए थे कि हम अपने काम में उतना वक़्त नहीं दे पाए जितनी हमें ज़रूरत थी.
चुनाव शुरू हुआ था विकास के मुद्दे पर लेकिन अंत तक आते-आते पूरी तरह धार्मिक विभेद पर टिक गया?
देखिए कोशिश बहुत की गई लेकिन मैं तो अब भी यह मानता हूं कि बंटवारा नहीं हुआ. लोगों के रुझान इधर-उधर हो सकते हैं लेकिन बंटवारा नहीं हुआ. आप नतीजे देखेंगे तो पाएंगे कि हमें नुक़सान हो सकता है लेकिन कांग्रेस का अस्तित्व कायम रहेगा. और संभव है कि जब नतीजे सामने आएं तो लोग कहें कि अब यूपीए-3 बन जाएगी.
क्या कांग्रेस यूपीए-2 की उपलब्धियों को भी लोगों के बीच पहुंचाने में नाकाम रही?
नहीं ऐसा नहीं है, पहुंचाया गया. लेकिन इतना शोर मचाया गया- संसद के अंदर और बाहर कि किसी भी सही और गंभीर बात को शोर में दबा देने की कोशिश की गई. देश के लिए यह अच्छी बात नहीं है.
हम भी दूसरों के साथ ऐसा कर सकते हैं लेकिन हम जानते हैं कि हमारा फ़र्ज़ क्या है और देश की हमसे उम्मीद क्या है, इसलिए हम ऐसा नहीं करेंगे.
तो क्या यह तय मान लिया जाए कि आत्मनिरीक्षण होगा पार्टी के स्तर पर?
अगर हमारी सरकार बनी तो आत्मनिरीक्षण होगा. सरकार नहीं बनी तो एक अन्य किस्म का आत्मनिरीक्षण होगा. भले ही बीजेपी पूरी तैयारी करे बैठी है कि वह सरकार बनाएगी, इसके बावजूद मैं मानता हूं कि सरकार यूपीए-3 की बनेगी. संभव है इसकी शक्ल थोड़ी अलग हो, नए लोग आ सकते हैं लेकिन सरकार यूपीए-3 की बनेगी.
थर्ड फ़्रंट आपको सहयोग करेगा?
थर्ड फ्रंट तो है नहीं कहीं, पार्टियां हैं- जो कभी फ्रंट बना लेते हैं, कभी तोड़ देते हैं. यूपीए-3 की सरकार बनेगी तो ज़ाहिर है वह गठबंधन सरकार होगी, जिसमें नए लोग आ सकते हैं.
राहुल गांधी की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?
वह हमारे नेता हैं और उनके लिए यह बहुत ज़िम्मेदारी वाला वक्त था. अक्सर नया नेता तब आता है जब हवा आपके साथ होती है. जब हवा बदल जाती है तब नेता का आना बहुत ज़िम्मेदारी और चुनौतीपूर्ण होता है. मुझे लगता है कि उन्होंने बहुत मेहनत और गंभीरता के साथ हमारा नेतृत्व किया है. अगले 15-20 साल तक वह हमारा और देश का नेतृत्व करेंगे.
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