मेरी ये बेसिरपैर की घटिया शायरी भी गोलमाल की लेटेस्ट फ़िल्म के 'प्लाट' से बेहतर है। रोहित शेटटी की फ़िल्म में लॉजिक की तलाश करना मूर्खता का परिचायक है हम सभी जानते हैं। पर बार बार मूर्खता की पराकाष्ठा पार करते हुए एक ही जैसी फ़िल्म बनाने को क्या कहेंगे, ये समझ नहीं आ रहा।
रेटिंग : 1 स्टार
समीक्षा
वही गोपाल और माधव
वही तुषार कपूर
वही रंग बिरंगी गाड़ियां
वही उल्टे सीधे स्टंट
वही लाउड कॉमेडी
वही बासी जोक्स
वही फोर्स्ड कॉमेडी
वही ओवर द टॉप बैकग्राउंड म्यूजिक, वही फेक सी इंडियन लोकेशन।
कुछ तो बदलो प्रभु, कुछ तो बदलो
फ़िल्म इतनी लंबी है कि ईश्वर से आप खुद प्रार्थना करेंगे कि वो आपको सच का भूत बना दे ताकि आप भूत बनकर अगली गोलमाल की स्क्रिप्ट गायब कर सकें, अरे वो तो मैं भूत बन के भी नहीं कर सकता, स्क्रिप्ट तो पहले ही नदारद है।
कोई वजह फ़िल्म देखने की-
सिर्फ तब्बु
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