प्रश्न: मनुष्य के लिए दो ही विकल्प हैं—पागलपन या ध्यान। तो क्या मनुष्य अब तक वहां पहुंच चुका है?
वे पहुंच चुके! वे ध्यान में नहीं पहुंचे, पागलपन में पहुंच चुके हैं और वे पागल जो पागलखानों में हैं और वे पागल जो बाहर हैं इनमें अंतर केवल मात्रा का है। कोई गुणात्मक अंतर नहीं है, मात्रा का ही अंतर है। हो सकता है तुम थोड़े कम पागल हो, वे ज्यादा पागल होंगे, लेकिन जैसा मनुष्य है, पागल। मैं क्यों कहता हूं कि जैसा मनुष्य है, पागल है?
क्या आपके अंदर भी चल रहा है गृहयुद्ध
पागलपन का अर्थ बहुत सारी चीजों से है। एक है—तुम केंद्रित नहीं हो और यदि तुम केंद्रित नहीं हो तो बहुत से स्वर होंगे तुम्हारे भीतर। तुम अनेक हो, तुम भीड़ हो। घर में कोई मालिक नहीं है और घर का हर नौकर मालिक होने का दावा करता है। वहां है अस्तव्यस्तता, द्वंद्व और एक अनवरत संघर्ष। तुम निरंतर गृहयुद्ध में रहते हो। यदि यह गृहयुद्ध नहीं चल रहा होता, तब तुम ध्यान में उतरते लेकिन यह दिन—रात चौबीसों घंटे चलता रहता है। कुछ क्षणों तक जो कुछ भी तुम्हारे मन में चलता हो उसे लिख लेना, और पूरी ईमानदारी से लिखना। जो चलता है उसे ठीक—ठीक लिख देना और तुम स्वयं अनुभव करोगे कि यह विक्षिप्तता है।
अपने मन को जानने की विधि
मेरे पास एक खास विधि है, जिसका प्रयोग मैं कई व्यक्तियों के साथ करता हूंं। मैं उनसे कहता हूं कि एक बंद कमरे में बैठ जाओ और जो कुछ तुम्हारे मन में आए उसे जोर से बोलने लगो। उसे इतने जोर से कहो, ताकि उसे तुम सुन सको। केवल पंद्रह मिनट की बातचीत—और तुम अनुभव करोगे कि जैसे तुम किसी पागल आदमी को सुन रहे हो। निरर्थक, असंगत, असंबद्ध टुकड़े मन में तैरने लगते हैं और यही है तुम्हारा मन। तो तुम शायद निन्यानबे प्रतिशत पागल हो। दूसरा कोई व्यक्ति सीमा पार कर चुका हो, वह सौ प्रतिशत के भी पार चला गया हो। जो सौ प्रतिशत के पार चले गए हैं, उन्हें हम पागलखाने में डाल देते हैं। लेकिन तुम्हें वहां नहीं रखा जा सकता क्योंकि यहां इतने ज्यादा पागलखाने नहीं हैं; और हो भी नहीं सकते। तब तो यह सारी पृथ्वी पागलखाना बन जाएगी!
स्वस्थचित्त व्यक्ति का कोई मुखौटा नहीं होता
एक स्वस्थचित्त व्यक्ति का कोई मुखौटा नहीं होता। उसका चेहरा मौलिक होता है। जो कुछ भी वह है, वह है। लेकिन एक पागल आदमी को लगातार अपने चेहरे बदलने पड़ते हैं। हर घड़ी उसे अलग स्थिति के लिए, भिन्न संबंधों के लिए भिन्न मुखौटा इस्तेमाल करना पड़ता है। जरा अपने को ही देखना अपने चेहरे बदलते हुए। निरंतर यही होता जा रहा है। तुम ध्यान से नहीं देख रहे हो और इसीलिए तुम्हें इसका बोध नहीं है। यदि तुम ध्यान से देखो, तो तुम्हें बोध होगा कि तुम पागल हो। तुम्हारे पास कोई एक चेहरा नहीं है।
हम खुद को दे रहे हैं धोखा
मौलिक चेहरा खो चुका है और ध्यान का अर्थ है कि मौलिक चेहरे को फिर से पा लेना। हम केवल दूसरों को धोखा नहीं दे रहे, हम अपने को भी धोखा दे रहे हैं। वस्तुत: यदि हमने स्वयं को ही धोखा नहीं दिया है तो दूसरों को धोखा नहीं दे सकते हैं। हमें अपने ही झूठ में विश्वास करना होता है; केवल तभी हम उसमें दूसरों का विश्वास बना सकते हैं। यदि तुम अपने झूठ में विश्वास नहीं करते, तो कोई दूसरा भी धोखे में आने वाला नहीं है। और यह सारा उपद्रव, जिसे तुम अपना जीवन कहते हो, कहीं नहीं ले जाता है। यह एक पागल मामला है। तुम अत्यधिक परिश्रम करते हो, चलते और दौड़ते हो। सारी जिंदगी संघर्ष करते हो और कहीं भी नहीं पहुंचते।
किस प्रकार की स्वस्थचित्तता है यह? और इस सारे संघर्ष में से सुख की झलकियां तक तुम तक नहीं आतीं। झलकियां भी नहींं। तुम बस आशा करते हो कि किसी दिन, कहीं—कल, परसों या मृत्यु के उपरांत किसी परलोक में सुख तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है! यह एक तरकीब है स्थगित करने की, ताकि तुम अभी बहुत दुख अनुभव न करो। तुम अनवरत दुख में हो, और वह दुख किसी दूसरे के द्वारा निर्मित किया हुआ नहीं है। तुम स्वयं अपना दुख निर्मित करते हो।
पहले स्वयं को केंद्रित करें
किस प्रकार की स्वस्थचित्तता है यह? लगातार तुम अपना दुख निर्मित कर रहे हो। मैं इसे पागलपन कहता हूं। स्वस्थचित्तता यह होगी कि तुम जागरूक हो जाओगे कि तुम केंद्रित नहीं हो। तो पहले केंद्रीभूत हो। फिर दूसरी चीज होगी, अपने लिए दुख का निर्माण न करना। उन सबको गिरा दो जो दुख का निर्माण करता है—वे सारे उद्देश्य, इच्छाएं और आशाएं। तुम इस बुनियादी तथ्य को टालते जाते हो कि जो कुछ भी तुम्हें होता है, तुम्हीं उसके एकमात्र कारण हो, और कुछ भी आकस्मिक नहीं है। हर चीज का कारण होता है और तुम हो वह कारण।
ओशो
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