ब्रिटेन में रहने वाले मुसलमानों का धार्मिक-सामाजिक जीवन रह-रहकर बहस का मुद्दा बनता रहता है.
ताज़ा बहस शुरू हुई एक हेडमास्टर के बयान से, जिन्होंने कहा है कि टीचर को पता ही नहीं चलता कि छात्रा को उनकी बात समझ में आई या नहीं क्योंकि नक़ाब की वजह से उसका चेहरा नहीं दिखता.
पड़ोसी देश फ्रांस में स्कूलों में सभी धार्मिक चिन्हों पर पाबंदी लगा दी गई है जिसमें क्रॉस से लेकर बुर्क़ा तक सब शामिल हैं.
यूरोप में मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी फ्रांस में रहती है लेकिन वहाँ इस क़ानून का पालन पूरी सख़्ती से हो रहा है.
धार्मिक आज़ादी पर बहस
इस मामले में ब्रिटेन और फ्रांस के रवैए में काफ़ी अंतर है, ब्रिटेन में बड़ी संख्या में लोग मानते हैं कि फ्रांस में जो हुआ है वह मानवाधिकारों का उल्लंघन है क्योंकि वह लोगों की पहनने-ओढ़ने की आज़ादी और अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता को छीनता है.
ब्रिटेन में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कई राजनेताओं का कहना है कि अगर फ्रांस जैसा कोई क़ानून बनाया गया तो उसके शिकार ज़्यादातर अल्पसंख्यक समुदाय के लोग ही होंगे.
पिछले ही दिनों ख़बर आई थी कि लंदन में एक जज ने एक महिला का मुक़दमा सुनने से इनकार कर दिया क्योंकि वह नक़ाब हटाने को तैयार नहीं थी, महिला का कहना था कि वह ग़ैर-मर्द को अपना चेहरा नहीं दिखाएगी .
उस महिला का कहना था कि उसके मुक़दमे की सुनवाई अगर एक महिला जज करे तो वह अपना चेहरा दिखाने को तैयार है. कई दिनों तक यह बहस चलती रही कि क्या धार्मिक मान्यताओं के लिए नियमों में ऐसे बदलाव की छूट दी जा सकती है?
ब्रिटेन में पली-बढ़ी मुसलमान परिवारों की कई लड़कियाँ सिर ढककर कामकाज करती हैं, स्कूलों, अस्पतालों, दफ़्तरों में अक्सर ऐसी महिलाएँ दिख जाती हैं, यहाँ लोग उसे हिजाब या फिर चादर कहते हैं.
असल में सारा विवाद उस नक़ाब को लेकर है जिसमें सिवा आँखों के कुछ दिखाई नहीं देता.
हाल ही में लंदन के एक स्कूल ने कहा कि वो नक़ाब पहनने वाली माँओं के बच्चों को अपने यहाँ दाख़िला नहीं देगा क्योंकि यह बच्चों की सुरक्षा के लिए ख़तरा है, स्कूल की दलील थी कि बच्चों को वे किसी नक़ाबपोश महिला के हवाले नहीं कर सकते.
नक़ाब पर विवाद
नक़ाब सिर्फ़ सऊदी अरब, ईरान या अफ़ग़ानिस्तान में पहना जाता हो ऐसा नहीं है, .
मैंने कई बार देखा है चश्मा पहनना, कुछ खाना या पीने जैसा मामूली काम उनके लिए कितना मुश्किल होता है लेकिन अपने धर्म का पालन करने के लिए मुसीबत उठाना आम बात है, धर्म चाहे जो भी हो.
मैंने कई बार हवाई अड्डों पर देखा है कि सुरक्षा जाँच की क़तार अचानक ठहर सी जाती है क्योंकि किसी नक़ाबपोश ख़ातून के लिए महिला कर्मचारियों को बुलाया जाता है.
किसी समुदाय के लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता और सार्वजनिक व्यवस्था के बीच संतुलन की बहस में कई परतें हैं और इसका कोई आसान हल किसी के पास नहीं है, लेकिन ब्रिटेन में बहस में जिस तरह की परिपक्वता दिखाई देती है उससे ये भरोसा पैदा होता है कि यहाँ सबके लिए जगह है.
उत्पाती, उन्मादी और तंग नज़रिए वाले लोग यहाँ भी हैं, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए काफ़ी हद तक असुविधा सहने की समझदारी ब्रिटेन के बहुसंख्यकों ने दिखाई है.
जब भी नक़ाब पर बहस होती है तो लोग पूछते हैं कि व्यवस्था को कितना बदलना होगा और मुसलमानों को कितना?
इस बहस के एकतरफ़ा न होने में ही शांति का रहस्य छिपा है.
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