हम सभी प्रार्थना करते हैं, लेकिन सब एक समान प्रार्थना करें, यह जरूरी नहीं है। ऐसे कुछ प्रयोग हुए हैं, जिनमें कुछ लोगों ने एक ही प्रार्थना एक ही भाषा में की। उनसे लाभ तो हुआ होगा, लेकिन वह स्थायी नहीं बन पाई। प्रार्थना करनेवाले धीरे-धीरे ऐसी स्थिति में पहुंच जाते हैं कि फिर वे अपने से भिन्न स्थिति सहन ही नहीं कर पाते।
हृदय से की जाती है प्रार्थना
वास्तव में, जिसे सहज भाव से जो सूझता है, उसी के अनुसार वह प्रार्थना करे। प्रार्थना हृदय से की जाती है। हम संतों की वाणी का अनुकरण करते हैं, क्योंकि हमें लगता है कि वे आध्यात्मिक भाषा ज्यादा जानते हैं। वास्तव में हमें अपने विवेक और विचार के आधार पर प्रार्थना करनी चाहिए। यह सारा प्रयत्न मात्र हो सकता है, क्योंकि परमेश्वर अचिंत्य व अनंत है।
जिसे जो सूझता है, वह करता है
मेरा ख्याल है कि पक्षी सबेरे उठकर जो बोलते हैं, वह ईश्वर स्मरण के समान होता है। वे जो कुछ भी बोलते हैं, प्रभात के प्रति ज्यादा गंभीर होते हैं। प्रार्थना यानी जीव का ईश्वर को कृतज्ञतापूर्वक याद करने का एक प्रयत्न। उस प्रयत्न में जिसे जो सूझता है, वह करता है। जैसे रोना सिखाया नहीं जाता है, वह सहज ही फूट पड़ता है, वैसे ही प्रार्थना भी हृदय से सहज भाव से निकलती है।
प्रार्थना में जीवन के प्रति निष्ठा
सुबह की प्रार्थना में जीवन के प्रति निष्ठा दिखाई जाती है। निर्णय की शक्ति हाथ कैसे आएगी, इसका ज्ञान भी हमें अभ्यास से हो जाएगा। ज्ञान की महिमा तो उपनिषद गाता है, इसमें अज्ञान की भी महिमा गाई गई है। आत्मज्ञान की जितनी आवश्यकता है, उतनी और किसी चीज की नहीं।
-विनोबा भावे
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