अपनी आजादी के सातवें दशक में भारत देश एक बड़े परिवर्तन के महुाने पर खड़ा है, जिसका मूल कारण है देश की 65 प्रतिशत आबादी की 35 वर्ष की औसत आयु। जी हां! संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी की गई 'द पॉवर ऑफ 1.8 बिलियन’ रिपोर्ट के अनुसार आज भारत दुनिया में में सबसे बड़ा उपलब्ध कार्यबल का दावा करनेवाला देश बन चुका है, अर्थात् आने वाले समय में विश्व की हर कंपनी में काम करने वाला 10वां व्यक्ति एक भारतीय होगा, ऐसा अंदाजा लगाया जा रहा है। ऐसे में यदि हम युवाओं की शिक्षा एवं उनके स्वास्थ्य में भारी निवेश करें और उनके अधिकारों की रक्षा पर जोर दें, तो हमारी अर्थव्यवस्था को अन्य देशों की भेंट में सुदृढ़ बनाने में हम सफल होंगे।
इस बात में कोई दो राय नहीं हैं कि समाज एवं राष्ट्र के नवनिर्माण में सदा से ही युवाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। प्राचीनकाल से लेकर आज तक युवाओं के योगदान से ही न सिर्फ समाज में समय-समय पर सकारात्मक बदलाव आते रहे हैं, अपितु राष्ट्र को भी नई दिशा मिलती रही है। परंतु वर्तमान में ऐसा देखा जा रहा है कि जिस युवा पीढ़ी के सामने देश का भविष्य संवारने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है, उसकी ऊर्जा रचनात्मक कार्यों में लगने के बजाय विध्वंसकारी गतिविधियों में खर्च हो रही है। कुछ वर्ष पूर्व तक देश की युवा पीढ़ी को ऊर्जावान, विचारशील, कल्पनाशील एवं जुझारू माना जाता था और उसके इन्हीं गुणों के आधार पर उम्मीद की जाती थी कि वह समझदार निर्णय, सक्षम प्रतिस्पर्धा में टिकने वाली और सकारात्मक दृष्टिकोण वाली होगी परंतु दुर्भाग्यवश आज की युवा पीढ़ी उम्मीदों के विपरीत निराश, कुंठाग्रस्त एवं आक्रोश की भावना से ग्रस्त अपने भविष्य के प्रति आशंकित एवं अनिश्चित नजर आ रही है और यह सभी मनोभाव बड़ी आसानी से हम किसी भी युवा के चेहरे पर आज पढ़ सकते हैं।
एक वो दौर था कि जब गांधी, विवेकानंद एवं लेनिन जैसे उच्च चरित्र वाले व्यक्तित्व युवाओं के आदर्श हुआ करते थे और एक आज का समय है कि जहां ढूंढने से भी कोई आदर्श नहीं मिलता। पहले के समय में समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए प्रत्येक युवा तत्पर रहता था परंतु आज क्या हाल हैं? आज के युवा को तो समाज को बदलने के बजाय स्वयं बदल जाना ज्यादा रुचिकर लगने लगा है। उसके लिए उच्च आदर्श एवं नैतिकता सिर्फ किताबी बातें बनकर रह गई हैं और इसी वजह से उसने भौतिक मूल्यों के सामने जीवन-मूल्यों को पूरी तरह से भुला दिया है। आज की प्रतिस्पर्धी दुनिया में हर युवक एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से विमुख होता जा रहा है। ऐसे माहौल के बीच यदि हम यह अपेक्षा रखें कि अन्य देशों की भेंट में हम सर्वश्रेष्ठ व विकसित बनकर दिखाएंगे, तो क्या वह उचित होगा? महात्मा गांधी का यह मानना था कि यदि युवाशक्ति का उचित मार्गदर्शन किया जाए तो वे एक स्वस्थ राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में बहुत बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
याद रहे! जो राष्ट्र अपने युवाओं को अनुशासनहीनता और हिंसा के पथ पर चलने की अनुमति देता है, वह अनजाने में ही खुद को निकट भविष्य में अराजकता की स्थिति में धकेल देता है। सत्ता में बैठे लोगों को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि युवाशक्ति एक दोधारी तलवार की तरह है, जो दुश्मनों का नाश करने में भी काम आ सकती है और वैकल्पिक रूप से उनका इस्तेमाल अपने ही देश में समाज विरोधी गतिविधियों को फैलाने में किया जाता है। अत: यदि युवाओं को बेवजह हड़ताल पर बैठकर अपने ही देश, माता-पिता समान शिक्षकों के सामने बंड करन को उकसाया जाएगा तो वे अपने ही देश व देश की संपत्ति को खत्म करने वाले भस्मासुर के समान बन जाएंगे, इसीलिए बेहतर यह होगा कि हम अपने युवाओं को राष्ट्र निर्माता के रूप में देखें।
— राजयोगी ब्रह्माकुमार निकुंजजी
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