शास्त्रों में मनुष्यों के लिए देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण ने ले ली है। पित्र ऋण श्राद्ध द्वारा उतारना आवश्यक है क्योंकि जिन माता-पिता ने हमारी आयु, आरोग्य और मुख सौभाग्य आदि की अभिवृद्धि के लिए बहुत यत्न या प्रयास किए हैं, उनके ऋण से मुक्त न होने पर हमारा जन्म लेना वेवजह है।
पुत्र न हो तो पत्नी भी कर सकता है श्राद्ध
पितरों का ऋण उतारने में किसी को ज्यादा खर्च लग रहा हो तो वो केवल सर्व सुलभ, जल, तिल, कुश, और पुष्प आदि से उनका श्राद्ध करने और ब्राह्मणों को भोजन करा देने मात्र से ऋण उतर जाता है। अत: श्राद्ध करने वाले के कर्म की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। इसके लिए जिस दिन माता-पिता की मृत्यु हुई हो उसी तिथि के हिसाब से दिन चुन कर श्राद्ध किया जाता है। जिस स्त्री के पुत्र न हों वह स्वयं भी अपने पति का श्राद्ध उसकी मृत्यु तिथि को कर सकती है।
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ज्योष्ठ पुत्र या नाति करता है श्राद्ध
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर अश्विन मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या तक सोलह दिन पितरों का तर्पण और श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। श्राद्ध करने का अधिकार ज्येष्ठ पुत्र अथवा नाति का अधिक होता है। इसमें अपने पितरों की भक्ति के लिए ब्राह्मणों को भोजन करा कर दक्षिणा देते हैं। भोजन में पूड़ी-तिल और कुश का प्रयोग अवश्य करते हैं। पितृ पक्ष में देवताओं को जल देने के पश्चात मृतकों की नामोच्चारण करके उन्हें भी जल तर्पण करते हैं।
-पंडित दीपक पांडेय
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