कानपुर। लाइफ ऑफ पाई, होम अलोन, कास्ट अवे और ट्रैप्ड मूवी में क्या सेम है? सरवाइवल की कोशिश इन सभी फिल्मों का मेन प्लाट है। पर ये सभी फिल्में किसी न किसी तरीके से फिल्म के मेन कैरेक्टर को हालात से अकेले लड़ते हुए दिखती हैं।
कहानी :
दो बरस की पीहू एक सुबह जब उठती है तो अपनी माँ को मरा हुआ पाती है। जिस बच्ची को मौत का मतलब भी नहीं पता वो कैसे अकेले एक बंद घर मे मौत से आंख मिचौली खेलती है यही है 93 मिनट की इस फिल्म की कहानी।
रेटिंग : 2 STAR
समीक्षा :
इंटरनेट और टीवी पर बच्चों के क्यूट वीडिओज देखना किसको पसंद नहीं। जैम, क्रीम, पानी और पेट्स से खेलते हुए बच्चे देख कर 'aww' की आवाज मुँह से निकल ही पड़ती है। पीहू बिल्कुल उसका उल्टा प्लाट लेकर चलती है। यहां कदम कदम पर जानलेवा खतरे हैं। बिजली के उपकरण है, मृत माँ है, कांच के टुकड़े हैं, खुली बालकनी है, आग है, फिनाइल है। ये फिल्म सही मायनों में एक हॉरर फिल्म है और बेहद वीभत्स भी है। स्क्रीनप्ले लेवल पे फिल्म वनटोन इसलिए है क्योंकि यहां न तो लाइफ ऑफ पाई की तरह होप है, न ही होम अलोन के बच्चे में इनेट शरारत का पुट। न तो बच्ची में समझ बूझ है न ही किसी प्रकार से सब्जेक्ट फुल लेंथ फ़िल्म बनने के लायक है। हालांकि फिल्म का ट्रेलर किड्स सेफ्टी के ऐड के रूप में जरूर बनाया जा सकता है। छोटी सी बच्ची पर जब एक एक खतरा आता है तो रूह कांप जाती है, फिर खयाल आता है कि बीच मे से ही उठ कर घर जाया जाए और घर को बेबी प्रूफ किया जाए। फिल्म की राइटिंग डाउनराइट मेनिपुलेटिव है और एक हद तक वीभत्स भी है। डायरेक्टर साहब सेडिजाम के लेवल तक डरा देते हैं।
AWESOME is the word for #PihuTrailer @vinodkapri directorial “Pihu” is out and you cannot take your eyes off this gut-wrenching trailer. Congrats @roykapurfilms @RonnieScrewvala @RSVPMovies #SidharthRoyKapur https://t.co/MyU6CQehtb
— Madhur Bhandarkar (@imbhandarkar) October 24, 2018
क्या है खास :
छोटी सी मायरा विश्वकर्मा जो कि इस फिल्म की अकेली एक्टर हैं, बहुत ही एक्सप्रेसिव हैं और फिल्म देख के आप चकित जरूर होंगे कि उनसे इतने जेनुइन शॉट कैसे हासिल किए गए। लेकिन उनका क्यूट चेहरा ही फिल्म की सबसे बड़ी समस्या भी है, 'मेरे से नहीं देखा जा रहा', ये कह कर कई दर्शकों ने हॉल से बाहर का रास्ता खोज लिया, फिल्म खत्म होने से पहले ही।
कुल मिलाकर 93 मिनट भी फिल्म में बैठ पाना बड़ा मुश्किल काम था। फिल्म की मेसेजिंग कि ''कुछ भी बुरा करने से पहले अपने बच्चो के बारे में सोचें कि आपके बाद उनपर क्या क्या बुरा हो सकता है'' फिल्म के मोनोटोनस ट्रीटमेंट में कहीं खो जाता है। हॉल से निकलते वक्त एक कसैला से टेस्ट मन मे रह जाता है। सत्य घटना पर आधारित इस फिल्म पर आधे घंटे का सावधान इंडिया तो बन सकता है, लेकिन इस पर फिल्म बनाना शायद एक भूल है। केवल मायरा के लिए डरते डरते देख सकते हैं पीहू।
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