हमलों की रिपोर्टिंग करने जब मैं घटनास्थल पर पहुंचा, तो बचपन की कुछ बातों ने मुझे घेर लिया और मैं सन्न रह गया.
22 अगस्त को पेशावर के ऑल सेंट चर्च पर दो आत्मघाती हमलावरों ने देखते ही देखते 81 लोगों की जान ले ली. यह वही शहर है, जहां मेरा जन्म हुआ.
यूं तो मैंने पिछले 25 साल में बतौर पत्रकार इस तरह के कई हादसे देखे हैं, लेकिन इस त्रासदी ने मुझे बहुत भावुक कर दिया. शायद इसकी वजह यह है कि मुझे लगा जैसे मेरे बचपन को बम से उड़ाया गया है.
इस सफ़ेद चर्च से सड़क के दूसरी तरफ मेरा मिशनरी संचालित एडवर्ड्स हाईस्कूल था. मैं वहां पांच से पंद्रह साल की उम्र तक पढ़ा. अपनी ज़िंदगी के दस साल मैं इसी स्कूल के सामने खेला.
डरावनी दुनिया
यह वही जगह थी, जहां से मैं रोज गुज़रा करता था. हम लोग स्कूल के समय से 10-15 मिनट पहले पहुंच जाते थे, लेकिन सीधे स्कूल नहीं जाते थे. घंटी बजने तक उसी सड़क पर छुपा-छुपी खेलते थे.
यह सड़क तो शायद ही बदली हो, लेकिन मैं इस दृश्य से अनजान था जो मुझे वहां मिला.
पास ही के सेंट जॉन्स चर्च और स्कूल के बड़े से खेल के मैदान में शवों को रखा गया था. जैसे ही मैं वहां पहुंचा, तो मुझे लगा कि मैं किसी और ही दुनिया में पहुंच गया हूं-डरावनी और बेनकाब दुनिया में.
रिश्तेदार बिलख रहे थे, बच्चे रो रहे थे और पुरुष अपने आंसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश कर रहे थे. एंबुलेंस के सायरन माहौल के अजनबीपन और तनाव को बढ़ा रहे थे.
जब आत्मघाती हमलावरों ने खुद को उड़ाया, तो उस वक्त 60 फ़ीसदी श्रद्धालु प्रार्थना के बाद चर्च से निकल गए थे. जो लोग रुके थे, वो चर्च में बंटने वाले मुफ़्त भोजन के लिए रुके थे.
लेकिन अब वहां दर्जनों ताबूत रखे थे और उनके पास मां और बहनें बिलख रही थीं. मेरा दिमाग़ जम गया. मेरे एक हाथ में माइक था और दूसरे में कैमरा, लेकिन मैं अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा था.
यह मेरी ज़िंदगी में पहला मौका था, जब मैं घटनास्थल से खाली हाथ लौटा था.
हर दिन बर्बरता
मैंने सामग्री जुटाने की कोशिश ही छोड़ दी और इस सबके बीच बस खड़ा था. एक पल के लिए लगा कि जैसे मैं जीते-जागते लोगों के बीच नहीं हूं. मैं किसी की मदद नहीं कर रहा था और वहां क्या कुछ हुआ, दुनिया को यह बताने के लिए बतौर पत्रकार सामग्री भी नहीं जुटा रहा था. मैं तकरीबन वहां रोया.
पेशावर पाकिस्तान में जारी चरमपंथ का अग्रिम मोर्चा रहा है और अक्सर चरमपंथी इसे निशाना बनाते हैं.
मैंने घटनास्थल पर एक एंबुलेंस ड्राइवर से पूछा कि हर दिन शवों को उठाने पर उन्हें कैसा लगता है. उसने कहा कि शुरू में मुश्किल होता था, लेकिन अब तो आदत हो गई है.
वहां कुछ किशोर लड़के भी खड़े थे. उन्हें भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. वो बड़ी लापरवाही से एक ताबूत लिए हुए थे और शायद उन्हें उस व्यक्ति के रिश्तेदारों की तलाश थी, जिसकी लाश ताबूत के अंदर थी.
वो मारे गए व्यक्ति के दोस्त लग रहे थे और वो इस हमले से हिले हुए थे.
निर्दोषों पर हमला
1980 के दशक में पेशावर ग़ज़ब की जगह हुआ करता था. मुझे याद नहीं आता कि वहां कोई धार्मिक तनाव थे. 1992 में शिया-सुन्नी तनाव के चलते समाज में विभाजन हुआ और तब शहर के पुराने इलाके में कर्फ़्यू लगाया गया था.
अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय नगरपालिकाओं में सफाई कर्मचारी जैसी छोटी-मोटी नौकरी या मिशनरी स्कूलों में पढ़ाकर अपनी गुज़र-बसर करते थे.
वो बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के लिए न तो कभी आर्थिक चुनौती बने और न धार्मिक.
मुझे अब भी नहीं पता कि चर्च पर हुए इस हमले ने मुझ पर क्यों ऐसा असर किया कि मैं काम भी नहीं कर पाया. शायद इसलिए क्योंकि इसमें मेरे बचपन से जुड़ी जगह को निशाना बनाया गया था.
मेरे पास ही खड़ी एक महिला रोते हुए कह रही थी, “मेरे बेटा चला गया. मेरी बेटी चली गई. मेहरबानी करके मुझे भी ले जाओ. मैं भी ज़िंदा नहीं रहना चाहती.”
मैं तो जैसे-तैसे उन हालात से उबर गया हूं, पर इस महिला को अब हमले के बाक़ी पीड़ितों की तरह अपनी मौत तक अपनों के गुज़रने के ग़म के साथ ज़िंदगी बितानी होगी.
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