राष्ट्रपिता ने बेटे को सौंपी दक्षिण में हिन्दी को लोकप्रिय बनाने की जिम्मेदारी
'हिन्दी से तमिल कैसे सीखें', तमिलनाडु एक्सप्रेस की उस बोगी में नए बने साथी ने अपने हाथों में किताब ले रखी थी। यह उत्तर से दक्षिण की ओर हम दोनों की पहली यात्रा थी। विंध्य के पार बसा प्रदेश जहां हिन्दी विरोधी आंदोलन का बीज अंकुरित हुआ था। यह उस दौर की बात है जब हम फीचर फोन से आगे नहीं बढ़े थे। इंटरनेट का विस्तार हो रहा था। अंग्रेजी का उस पर एकछत्र राज था। गूगल को दुनिया में आए पांच बरस से ज्यादा हो रहे थे। फेसबुक अपनी उम्र के दूसरे पड़ाव पर था। ट्विटर, व्हाट्सएप ने अभी अपनी आंखें भी नहीं खोली थीं। आईटी इंडस्ट्री का दक्षिणी राज्यों के प्रमुख शहरों में तेजी से विस्तार हो रहा था। उत्तर भारतीय युवा पढ़ाई या रोजगार की आस में दक्षिण का रुख करने लगे थे। राज्य में जयललिता की सरकार थी। जिनके मेंटर एमजी रामचंद्रन ने सीएम रहते तमिलनाडु विधानसभा में अंग्रेजी को भारत की अकेली राजभाषा बनाने का प्रस्ताव पारित करवाया था। विपक्ष के नेता हिन्दी विरोधी आंदोलन के नायकों में से एक एम. करुणानिधि थे। इसी राज्य में कभी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिन्दी के प्रचार प्रसार की कमान अपने बेटे देवदास गांधी को सौंपी थी। बहुतेरे हिन्दीभाषियों ने इसे अपना घर बनाया था लेकिन हिन्दी भाषा की डगर कांटों भरी थी।
इस तरह फूटा हिन्दी विरोधी आंदोलन का अंकुर
इतिहास के पन्नों को पलटते हैं। साल 1936 में मद्रास (वर्तमान में चेन्नई) के टी नगर में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा का नया भवन बनकर तैयार हुआ। जिसका उद्घाटन करने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू आए थे। इस सभा की स्थापना 1918 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से की थी। उनका मानना था कि हिन्दी में पूरे देश को एकता के सूत्र में बांधने की क्षमता है। सभा के पहले प्रचारक उनके बेटे देवदास गांधी बने। यह भवन आज भी टी नगर में है और सभा अपना काम जारी रखे हुए है। टी नगर (त्यागराय नगर) को उसका नाम जस्टिस पार्टी के प्रमुख नेताओं में से एक रहे पी त्यागराय चेट्टी से मिला है। समय ने करवट ली। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के नेतृत्व में साल 1937 में मद्रास प्रेसीडेंसी में कांग्रेस की सरकार बनी। सरकार ने 1938 में माध्यमिक विद्यालयों में हिन्दी को अनिवार्य करने का फैसला लिया। राज्य में आत्म सम्मान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे पेरियार की जस्टिस पार्टी तब विपक्ष में थी। उसने इसका विरोध करने का फैसला किया। देखते ही देखते यह फैसले के विरोध से आगे जाकर राज्यव्यापी हिन्दी विरोधी आंदोलन में तब्दील हो गया। राजगोपालाचारी सरकार ने 1939 में त्यागपत्र दे दिया। अंग्रेज गवर्नर ने 1940 में सरकार के फैसले को वापस ले लिया। आंदोलन थम गया लेकिन पेरियार के सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन की उर्वरा भूमि में हिन्दी विरोध का बीज भी आ पड़ा था। अंकुर फूट चुका था।
संस्कृतियों के बीच टकराव
जैसे-जैसे भारत की आजादी की तारीख करीब आ रही थी। संविधान सभा में भाषा के सवाल को लेकर तीखी बहस हो रही थी। हिन्दी के पक्ष व विपक्ष में दो खेमे बन गए थे। देश 1947 में आजाद हो गया। वहीं अगले ही साल मद्रास राज्य में हिन्दी विरोधी आंदोलन फिर जोर पकड़ने लगा। इसकी अगुवाई भी पेरियार कर रहे थे। जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर द्रविड़ कषगम हो चुका था। अब हिन्दी विरोध भाषा का सवाल न रहकर दो संस्कृतियों द्रविड़ व आर्यों के बीच टकराव की तरह पेश किया जा रहा था। इस बार भी विरोध स्कूलों में हिन्दी अनिवार्य किए जाने को लेकर पनपा था। सरकार व आंदोलनकारियों के बीच सहमति बनने के बाद आंदोलन स्थगित हो गया। वहीं भाषा के प्रश्न पर संविधान सभा में 1949 में मुंशी-अय्यांगर फॉर्मूले पर सहमति बन गई। हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में 14 सितम्बर, 1949 को स्वीकार कर लिया गया। संविधान लागू होने के बाद 15 वर्षों तक अंग्रेजी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाए रखने पर भी सहमति बनी।
मद्रास से लेकर मदुरै तक भाषाई दंगों की आग में जले
इसी बीच अण्णादुरै ने 1949 में द्रविड़ कषगम से अलग होकर नई पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कषगम बना ली। एम करुणानिधि भी पेरियार से अलग होकर उनके साथ हो गए। बहरहाल नई पार्टी ने हिन्दी को लेकर पुराना ही रुख अपनाया। हिन्दी विरोधी सम्मेलनों व हिन्दी विरोध दिवस मनाने का सिलसिला जारी रहा। अब यह लड़ाई हिन्दी बनाम द्रविड़ गौरव हो चली थी। जनभावनाओं को उभारने का काम जारी था। जिसका परिणाम भयावह होने वाला था। संसद में 1963 में राजभाषा विधेयक पेश किया गया। डीएमके नेता अण्णादुरै उस समय राज्यसभा सांसद थे। उन्होंने संसद में इसका विरोध किया। जब यह विधेयक पास हो गया। तो मद्रास राज्य की सड़कों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। जैसे-जैसे 26 जनवरी, 1965 का दिन करीब आता गया विरोध प्रदर्शनों में तेजी आती गई। मदुरै में 25 जनवरी को दंगा भड़क गया। दंगों की आग फैलती चली गई। लोगों का गुबार रेलवे स्टेशनों के हिन्दी के नामों से लेकर साइन बोर्डों तक पर उतरा। आत्मदाह से लेकर हिंसक झड़पों में बड़ी संख्या में निर्दोषों ने जान गंवाई। आंदोलन उसका नेतृत्व करने वालों के भी काबू में नहीं रह गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के आश्वासन के बाद ही शांति वापस आ सकी। हिन्दी विरोध का अंकुर अब वृक्ष बनकर अपनी जड़ें गहरी जमा चुका था। गांधीजी भी 100 बरस पहले मद्रास में एक पौधा लगा गए थे।
गांधीजी का लगाया हिन्दी सेवा का पौधा
हिन्दी विरोधी आंदोलन के दौरान 80 के दशक में वह दौर भी आया जब दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा को बंद करने तक की मांग उठी। पुरानी पीढ़ी के भीतर हिन्दी विरोधी आंदोलन की स्मृतियां अभी शेष हैं। नेता भी रस्म अदायगी करते रहते हैं। बहरहाल नई पीढ़ी अपने को हिन्दी से जोड़ रही है। उसके मन में हिन्दी को लेकर अनुराग भले ही न हो लेकिन रुचि पैदा हुई है। महात्मा गांधी का लगाया पौधा अब 100 बरस का हो गया है। बीते 10 वर्षों में अकेले तमिलनाडु में 12 लाख अभ्यर्थियों ने सभा के पाठ्यक्रमों के लिए नामांकन कराया है। हिन्दी लोगों के दिलों को जीतकर ही आगे बढ़ सकती है।
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