मूर्तिभंजन करने वाला, क्या खुद अपनी मूर्ति को प्रजा-मानस में मूर्तिभंजक के रूप में प्रस्थापित नहीं करेगा?
वह अगर सच में मूर्तिभंजक है, तो वह अपनी मूर्ति से भी प्रजा को हमेशा बचाने की कोशिश करेगा और अगर वह सिर्फ दूसरों की मूर्तियों का भंजन करना चाहता है और अंतत: भीतर रस इसमें है कि उसकी मूर्ति स्थापित हो जाए, तब तो सब मूर्तिभंजक पीछे से मूर्तिपूजक और मूर्तिपूजा को शुरू करने वाले बन जाते हैं, लेकिन मेरी दृष्टि यह है कि मूर्तिभंजक अगर सच में मूर्तिभंजक है, तो अपनी प्रतिमा को किसी भी कीमत पर स्थापित नहीं होने देगा। सिर्फ यही नहीं, वह यह संघर्ष भी आगे तक जारी रखेगा, क्योंकि उसकी लड़ाई किसी की मूर्ति से नहीं है, बल्कि उसकी लड़ाई मूर्ति के बन जाने से है। जैसे ही मूर्ति बनती है कि वह सत्य-विरोधी हो जाती है और इस बात का कोई मतलब नहीं बनता है।
वह जो आप कहते हैं, यह खतरा है हमेशा, क्योंकि दुनिया के पिछले सारे मूर्तिभंजकों की मूर्तियां बन चुकी हैं। जीसस मूर्तिभंजक हैं और बुद्ध भी मूर्तिभंजक हैं, लेकिन बुद्ध की तो इतनी मूर्तियां बनीं कि बुत शब्द जो है वह बुद्ध का ही रूपांतरण है, वह बुद्ध का ही बिगड़ा हुआ रूप है। इतनी मूर्तियां बनीं कि बुत का मतलब ही बुद्ध होने लगा, बुत का मतलब ही बुद्ध हो गया। तो वह बुतपरस्ती पैदा होती है। अब तक यह हुआ है और अब इससे सीख लेनी चाहिए उन लोगों को जो मूर्तिभंजक हैं और पहली सीख यह है कि वे अपनी मूर्ति को किसी भी तरह स्थापित न होने दें, क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपके चित्त में कौन सी मूर्ति है। आपके चित्त में मूर्ति है इसकी बात ही खत्म हो गई। आपका चित मूर्ति से मुक्त होना चाहिए, तो मैं तो पूरी चेष्टा करूंगा कि मेरी मूर्ति स्थापित न हो जाए।
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अब जैसे कि कल ही मैंने आपसे कहा कि मैं कोई चरित्र का दावा नहीं करता हूं, अगर मुझे अपनी मूर्ति स्थापित करनी है, तो मुझे चरित्र का दावा करना चाहिए। मगर चरित्रवान की मूर्ति स्थापने के लिए। लोकमानस में चरित्रहीन की मूर्ति की कोई पूजा कभी नहीं हुई है और कभी संभावना नहीं है। चरित्रहीन की मूर्ति स्थापित होने की कोई संभावना नहीं है। यहां मेरे कहने का मतलब आप समझे न? आखिर लोकमानस, मूर्ति बनाने के उसके कुछ नियम हैं। मुझे इस बात का दावा करना चाहिए कि मैं भगवान हूं, मुझे इस बात का दावा करना चाहिए कि मैं मोक्ष को उपलब्ध कर गया हूं, तब मूर्ति जरूर स्थापित होती है और मुझे कहना चाहिए कि मेरे पैर छूने से तुम मुक्ति पा सकोगे। मुझे, तुम्हें मेरी मूर्ति बनाने में क्या-क्या लाभ होगा, यह भी मुझे पूरी तरह से बताना चाहिए। फिर भी अगर मेरी मूर्ति बनाने से कोई लाभ नहीं होता, तो यकीन मानिए कि मेरी मूर्ति कभी निर्मित नहीं होती।
-ओशो
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