प्रश्न: आपने कहा कि हम धागे की, मूलभूत की फिक्र करते हैं, लेकिन आपका किस 'हम' से तात्पर्य है? क्योंकि हम तो अभी मानकों से, घटनाओं से ही उलझे हुए हैं। हम घटनाओं में जीते हैं:
जब मैं कहता हूं कि हमें धागे से, मूलभूत से, मतलब है, तो 'हम' से मेरा अभिप्राय तुमसे नहीं है। जैसे तुम अभी हो उससे नहीं है, लेकिन जो तुम हो सकते हो उससे है। तुम दो हो, और जो तुम अभी हो वह वास्तविक नहीं है, वह बस एक झूठ है। वास्तविक तुम तो वह है, जिसे तभी जाना जा सकता है, जब सभी मुखौटे गिर जाएं। तो जब मैं कहता हूं कि हमें धागे से मतलब है, तो मैं तुमको तुम्हारी वास्तविकता के रूप में लेता हूं। तुम दो हो: एक तो जैसे तुम दिखाई पड़ते हो और एक जो तुम हो। जैसे तुम दिखाई पड़ते हो वह तो घटनाओं से, मनकों से, वाह्य से संबंधित है लेकिन अंतस, जो तुम सच में हो, घटनाओं से संबंधित नहीं है। वह समय से बिल्कुल भी संबंधित नहीं है। उसका संबंध शाश्वत से है।
बुद्ध के पूर्व-जन्म की कहानी
मैं तुम्हें बुद्ध के पूर्व-जन्म की एक कहानी सुनाता हूं। उस जन्म में बुद्ध सबकी तरह अज्ञानी थे। उन्होंने एक व्यक्ति के बारे में सुना, जो संबुद्ध हो गया था। वह उसके चरण छूने और उसके दर्शन करने गए। उन्होंने उस बुद्ध पुरुष के चरण छुए, और जब वह उठ रहे थे तो बड़े हैरान हुए, क्योंकि वह बुद्ध पुरुष उनके चरण छूने लगा। उन्होंने कहा, 'यह आप क्या कर रहे हैं? मैं अज्ञानी हूं, पापी हूं और आप शुद्धतम प्रकाश हैं। आप मेरे पांव क्यों छू रहे हैं?' उस बुद्ध पुरुष ने हंसकर कहा, 'मैं तेरे पांव नहीं छू रहा। मैं उस आत्मा के चरण छू रहा हूं, जो तुझमें छिपी हुई है और वह पहले से ही बुद्ध है। एक दिन तुझे उस वास्तविकता का पता लग जाएगा जिसके आगे मैं झुका हूं। जिस क्षण मैं संबुद्ध हुआ, मुझे सबकी मूल वास्तविकता का पता चल गया।'
बुद्ध ज्ञान
फिर जब अपने अगले जन्म में बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए तो उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, 'वह बुद्ध पुरुष क्या कह रहा था तब मैं समझ नहीं सका था, लेकिन अब देख सकता हूं कि उसका क्या अभिप्राय था। अब वह प्रकट हुआ है और जो मैं अब हूं, वह मैं तब भी था। उसने जरूर इसी को प्रणाम किया होगा।' तो जब मैं कहता हूं 'हम', तो मैं तुम्हारी संभावना को शामिल करता हूं। तुम्हारी आकृति तो बस एक सपना है, लेकिन तुम्हें इसका पता नहीं चल सकता क्योंकि जब तुम्हें पता चलता है कि तुम सपना देख रहे हो तो सपना टूट जाता है। तुम्हें अपने स्वभाव का बोध नहीं है। यदि तुम्हें पता चल जाए तो प्रतीति समाप्त हो जाएगी। लेकिन मुझे पता है- तो तुम मेरी कठिनाई समझ सकते हो- मैं तुम्हें संबुद्धों की तरह देखता हूं। तुम वही हो। तुम बस अज्ञानी होने का खेल खेल रहे हो, स्वयं को धोखा दे रहे हो, लेकिन तुम कुछ भी करो, उससे मूल स्वभाव को कोई अंतर नहीं पड़ता. वह निर्दोष, शुद्ध, परिशुद्ध रहता है। तुम यहां हो। यदि मैं तुम्हारे वाह्य रूप को देखूं तो बहुत सी चीजें तुम्हें समझाने को हैं, लेकिन यदि मैं तुम्हारे अंतरतम में झांकूं तो तुम्हें कुछ भी समझाने की जरूरत नहीं है। कुछ करने की जरूरत नहीं है। यही मेरा अभिप्राय है जब मैं कहता हूं हमें धागे से, मूलभूत से मतलब है; मनकों से, घटनाओं से, वाह्य से नहीं। इसे याद रखो। किसी दिन जब तुम संबुद्ध होओगे तुम्हें पता चलेगा कि हम से मेरा क्या तात्पर्य था और कौन उसमें शामिल था।
उद्देश्य
इतना निश्चित है कि जैसे तुम यहां मेरे सामने हो, जैसे दिखाई पड़ते हो, वैसे तुम उसमें शामिल नहीं हो- लेकिन जैसे तुम सदा थे और जैसे तुम सदा रहोगे, जब यह पर्दा हट जाएगा, जब बादल छंट जाएंगे और सूरज उगेगा। मैं बादलों के पीछे सूर्य को देख सकता हूं। तुम बादलों से तादात्म्य बनाए हो। तुम मुझ पर विश्वास भी नहीं कर सकते। यदि मैं कहूं कि तुम संबुद्ध ही हो तो तुम कैसे विश्वास कर सकते हो? तुम कहोगे कि मैं जरूर तुम्हें धोखा दे रहा हूं या कोई चाल चल रहा हूं। यह सत्य है, लेकिन सत्य को समझना कठिन है और इससे पहले कि तुम स्वयं पर लौटो, तुम्हें लंबी यात्रा करनी है। इससे पहले कि तुम्हें पता चले कि तुम्हारा घर ही लक्ष्य है, कि उस जगह तुम सदा से ही हो जहां तुम पहुंचना चाहते हो, तुम्हें लंबी यात्रा करनी है।
ओशो
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