जब तक प्रबल जीवेषणा है--लस्ट फॉर लाइफ- जब तक जीने की महान आकांक्षा है, तब तक तो तुम भक्त बनते ही नहीं, शिष्य बनते ही नहीं। जीवेषणा की पराजय। बहुत-बहुत तरह से जांच लेने के बाद जब तुम पाते हो कि जीवन में कुछ है ही नहीं; कुछ और चाहिए जो जीवन से ऊपर हो-तब।
बड़ी मीठी कहानी बौद्धशास्त्रों में है। बुद्ध युवा थे। सब उनके पास था। सुंदर पत्नी थी। और उसी रात उनको बेटा जन्मा था, जिस रात उन्होंने सबकुछ छोड़ा। बुद्ध ने उसका नाम राहुल रखा। बड़ा सोचकर रखा। राहुल का मतलब होता है: राहु, जिसके चक्कर में कभी चांद पड़ जाता है, तो ग्रहण लग जाता है। तो बुद्ध ने कहा है कि यह और बेटा हो गया आज। भागने का मैं विचार किए बैठा था, पत्नी रोकने को काफी थी, पिता रोकने को काफी थे; -और राहुल भी आ गए हैं! यह राहु भी आ गया! अब इस बेटे का मोह मुझे रोकेगा।
इस डर से कि अब कहीं यह बेटा मुझे न रोक ले, उसी रात भाग गए। जब महल से निकले, रथ पर सवार हुए, तो कहते हैं: देवताओं ने रास्तों पर फूल बिछा दिए, कमल के फूल बिछा दिए कि घोड़ों के पैरों की आवाज न हो, कहीं राजमहल जग न जाए! दरवाजे ऐसे थे नगर के कि खुलते थे तो उनकी मीलों तक आवाज होती थी। तो देवताओं ने दरवाजे ऐसे खोले कि जरा भी आवाज न हो। सारे पहरेदार गहन निद्रा में सुला दिए। ये देवता इतनी फिक्र क्यों कर रहे हैं? यह कहानी बड़ी मीठी है- प्रतीकात्मक है। यह इतना ही कह रही है कि सारा अस्तित्व आह्लादित होता है। जब कोई व्यक्ति सत्य की तरफ उन्मुख होता है। सब तरह से सहारा मिलता है। सब तरफ से सहयोग मिलता है। फिर जब महल छोड़कर दूर वन में निकल आए और अपने सारथी से कहा कि अब तुम लौटा ले जाओ रथ को। मेरे इस प्यारे घोड़े को। मुझे क्षमाकरो, मैं चला जंगल, मैं सत्य की खोज पर निकला हूं। उस बूढ़े सारथी ने आंखों में आंसू भरे हुए कहा, 'आप यह क्या कर रहे हैं? यह सुंदर महल, यह सुंदर पत्नी, ये सब सुख-भोग आप छोड़कर जा रहे हैं। इसी को पाने के लिए तो हर आदमी तड़प रहा है। आप होश में हैं?
बुद्ध ने कहा: 'मैं पीछे लौटकर देखता हूं, मुझे तो महल नहीं दिखाई पड़ता। केवल लपटें दिखाई पड़ती हैं। और जितनी जल्दी मैं खोज लूं कि जीवन का सत्य क्या है, उतना ही अच्छा। इसके पहले कि यह जीवन मौत में परिणत हो जाए- मैं खोज लेना चाहता हूं। मैं सब दांव पर लगा देना चाहता हूं। सब छोडऩे को तैयार हूं। बुद्ध ने जिस परिपूर्णता से यह बात कही, कहते हैं, वह जो बूढ़ा सारथी था, उसकी भी समझ में आई। बात तो सच थी। जीवन उसने भी देख लिया था। पाया तो कुछ भी न था, लेकिन अभी तक उसे ख्याल न आया था कि जीवन के पार भी कोई जीवन हो सकता है! कहते हैं, वह भी उतरा और बुद्ध के पीछे जंगल में प्रविष्ट हो गया।
मगर यहां तक बात रुक गई होती तो भी ठीक थी। इतिहास नहीं है, यह पुराण है। कहते हैं, बुद्ध जब समझा रहे थे सारथी को, तो घोड़े ने भी सुना. घोड़े को भी बड़ा प्रेम थ। उसकी आंख से आंसू टपके और जब बुद्ध और सारथी भी जंगल में चले गए, तो घोड़ा भी जंगल में चला गया। यह बात मुझे बड़ी प्यारी लगती है कि घोड़ा भी जंगल में चला गया! उसे भी बात दिखाई पड़ी कि जब बुद्ध के जीवन में कुछ नहीं, जब मनुष्य के जीवन में कुछ नहीं है, तो मुझ घोड़े के जीवन में क्या रखा है! उसकी जीवेषणा बुझ गई। वह भी खोज पर निकल गया। बाद में किसी ने बुद्ध से पूछा है कि उस घोड़े का क्या हुआ। बुद्ध ने कहा कि वह सत्य को खोजते मर गया- भविष्य में कभी बुद्ध होगा।
प्रबल जीवेषणा ही तुम्हें उस घड़ी ले आती है, जहां जीवेषणा गिर जाती है। जीवेषणा में दौड़-दौड़कर एक दिन पता चलता है: इस जीवन में कुछ भी नहीं है। जिस दिन यह पता चलता है, उस दिन पलट गए; उसी दिन 'पलटू का जन्म; उसी दिन तुम लौटे। उस दिन तुम्हारी नई खोज शुरू होती है। फिर तुम धन नहीं खोजते, ध्यान खोजते हो; संसार नहीं खोजते, संन्यास खोजते हो; बंधन नहीं खोजते, मोक्ष खोजते हो; वासना नहीं खोजते, प्रार्थना खोजते हो. जब ऐसी खोज शुरू हो जाती है, तो ही समर्पण होता है; तो ही कोई सीस को उतारकर रखने को राजी होता है.अपनी जिंदगी को सद्गुणों के साथ जीना चाहिए।
-ओशो
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