कोरिया पर नजर रखने वाले जानकारों को इस बात पर शक है कि वह लड़ाई लड़ने की काबिलियत रखता है. जिस तरह से उत्तर कोरिया का खतरा बढ़ता जा रहा है लगभग उसी गति से बाकी दुनिया की चिंताएं भी.
लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या हालात सचमुच इस हद तक खतरनाक हो सकते हैं? सबसे पहले तो उत्तर कोरिया ने फरवरी महीने में अपने सहयोगी चीन का नजर अंदाज करते हुए परमाणु परीक्षण किए और फिर परमाणु हमलों की चेतावनी भी दी.
इसके बाद दक्षिण कोरिया और अमरीका के सैन्य अभ्यास के खिलाफ उत्तर कोरिया ने अपनी सेना को अलर्ट कर दिया. इतना ही नहीं इसके अगले दिन उत्तर कोरिया ने अपनी मध्यम दूरी तक मार करने वाली मिसाइलों को भी तटीय इलाकों में तैनात कर दिया.
सरहद पर संघर्ष
कहा जा रहा है कि दक्षिण कोरिया और जापान उत्तर कोरिया के संभावित खतरे का निशाना बन सकते हैं. समस्या यह है कि यह क्षेत्र दुनिया के हथियारों का बड़ा जखीरा बन गया है.
उत्तर कोरिया ने अपनी सीमाओं पर 12 लाख सैनिकों की तैनाती कर रखी है जबकि सीमा के उस पार दक्षिण कोरिया ने छह लाख 50 लाख हजार सैनिक तैनात कर रखे हैं. इनके अलावा अमरीकी सैनिक भी बड़ी तादाद में दक्षिणी कोरिया की सुरक्षा के लिए मुस्तैद हैं.
यह पहली बार नहीं है कि उत्तर कोरिया ने लड़ाई की धमकी दी है. लेकिन इससे पहले जब भी ऐसा हुआ है तो उत्तर कोरिया ने बातचीत के रास्ते खुले रखे थे. हालांकि इस बार हालात अलग हैं.
उत्तर कोरिया का नया नेतृत्त्व अभी युवा और अनुभवहीन है और यह संभव है कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम पर बातचीत करने के लिए बहुत इच्छुक न हों. इन हालात में उत्तर कोरिया से बातचीत की जिम्मेदारी काफी हद तक चीन पर है.
और इस बात को लेकर कयास लगाए जा रहे हैं कि चीन किस हद तक उत्तर कोरिया को समझाने में कामयाब हो पाएगा. चीन को उत्तर कोरिया का पैरोकार माना जाता रहा है.
उत्तर कोरिया का मिसाइल कार्यक्रम
माना जाता है कि उत्तर कोरिया के पास अलग-अलग क्षमताओं के एक हजार से भी ज्यादा मिसाइलें हैं. इनमें लंबी दूरी की वह मिसाइल भी है जिसकी मारक क्षमता अमरीका तक है. कोरिया का हथियार कार्यक्रम पिछले कुछ दशकों में सुनियोजित तरीके से बढ़ा है.
60 और 70 के दशक में कम दूरी तक मार करने वाली मिसाइलों की तुलना में 80 और 90 के दशक में यह मध्यम दूरी की बैलेस्टिक मिसाइल कार्यक्रम तक पहुंच गया. इससे अधिक दूरी की मारक क्षमता वाले प्रक्षेपास्त्रों के बारे में कहा जा रहा है कि यह अभी शोध और विकास की अवस्था में है.
विदेशी मामलों पर नजर रखने वाली एक स्वतंत्र संस्था ‘काउंसिल ऑफ फॉरेन रिलेशन्स’ के मुताबिक उत्तर कोरिया के कुछ मिसाइल नाभिकीय हथियारों को भी ढोने में सक्षम हैं. हालांकि उत्तर कोरिया ने अभी तक ऐसे हथियारों के विकास के बारे में नहीं सोचा है.
कोरिया का मिसाइल कार्यक्रम मुख्यतः स्कड मिसाइलों को विकसित करके बनाया गया है. उत्तर कोरिया ने वर्ष 1969 में पहली बार सोवियत संघ से सामरिक प्रक्षेपास्त्र हासिल किए थे लेकिन कोरिया तक पहली स्कड मिसाइल 1976 में मिस्र के जरिए पहुंचा.
मिस्र से स्कड मिसाइल की आपूर्ति
माना जाता है कि यॉम किप्पूर की लड़ाई में इसराइल के खिलाफ समर्थन देने की एवज में मिस्र ने उत्तर कोरिया को स्कड मिसाइल और उसकी डिजाइन की आपूर्ति की थी.
साल 1984 के आते-आते उत्तर कोरिया ने अपने स्कड प्रक्षेपास्त्रों हॉसॉन्ग-5 और हॉसॉन्ग-6 और यहां तक कि मध्यम दूरी तक मार करने वाली नॉडॉन्ग मिसाइल का निर्माण शुरू कर दिया.
उत्तर कोरिया का नया प्रक्षेपास्त्र ताइपॉडॉन्ग इन तकनीकों को मिलाकर विकसित किए गए हैं और यह लंबी दूरी तक की मारक क्षमता रखता है. साल 2006 में कोरिया ने ताइपॉडॉन्ग-2 का परीक्षण किया था जिसके बारे में जानकारों का कहना है कि उसकी मारक क्षमता हजारों मील की दूरी तक हो सकती थी.
हालांकि इसे बाद 2009 और 2012 में भी कुछ परीक्षण किए थे लेकिन उनके नतीजे सिफर रहे. इनके बाद 12 दिसंबर 2012 को उत्तर कोरिया ने त्रि-स्तरीय रॉकेट का सफल परीक्षण किया. कोरिया के इस मिसाइल परीक्षण पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने तीखी निंदा की थी.
कम दूरी तक मार करने वाली मिसाइल
उत्तर कोरिया के बारे में यह माना जाता है कि उसे पास कम दूरी की मारक क्षमता वाले कई तरह के प्रक्षेपास्त्र हैं. इनमें एक केएन-02 भी है जिसकी मारक क्षमता 120 किलोमीटर तक है.
केएन-02 से पड़ोसी दक्षिण कोरिया के सैन्य ठिकानों पर हमला किया जा सकता है. परमाणु अप्रसार अध्ययन से जुड़े एक अमरीकी सेंटर के मुताबिक हॉसॉन्ग-5 और हॉसॉन्ग-6 की मारक क्षमता क्रमशः 300 किलोमीटर और 500 किलोमीटर तक है.
इन्हें स्कड बी और स्कड सी के नाम से भी जाना जाता है. हॉसॉन्ग-5 और हॉसॉन्ग-6 का परीक्षण किया जा चुका है और इन्हें तैनात भी कद दिया गया है.
ये प्रक्षेपास्त्र पारपंरिक लड़ाई लड़ने में काम तो आ ही सकती हैं और साथ ही रक्षा मामलों के जानकार यह मानते हैं कि इनके जरिए जैविक, रासायनिक और नाभिकीय हमलों को भी अंजाम दिया जा सकता है.
दोनो कोरियाई देशों के दरम्यां हालात तनावपूर्ण बने हुए हैं और तकनीकी रूप से वे युद्ध जैसी स्थिति का सामना कर रहे हैं. वर्ष 1953-55 में हुए संघर्ष के बावजूद दोनो देशों ने कभी भी किसी समझौते पर दस्तखत नहीं किए. दोनो देशों की सीमाएं तकरीबन किलेबंदी जैसी हैं और सैन्य दृष्टि से दोनो ही देश ताकतवार हैं.
नॉडॉन्ग मिसाइल
80 के दशक के आखिर में उत्तर कोरिया ने एक हजार किलोमीटर की दूरी तक की मारक क्षमता वाली नॉडॉन्ग प्रक्षेपास्त्रों को विकसित करने कार्यक्रम शुरू किया. कहा जाता है कि इसका संभावित निशाना जापान था.
लेकिन सामरिक अध्ययन से जुड़े एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान का कहना है कि नॉडॉन्ग के विकास, उत्पादन और तैनाती के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है. संस्थान का यह मानना है कि जापान में अमरीकी सैन्य अड्डों जैसे ठिकानों पर हमला करने के लिए नॉडॉन्ग पर्याप्त नहीं होगा.
परमाणु अप्रसार पर काम करने वाले अमरीकी सेंटर ने मार्च 2006 में एक रपट जारी की थी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि नॉडॉन्ग के परीक्षण के दौरान इसमें कुछ तकनीकी खामी पाई गई थी.
विश्लेषकों का यह कहना है कि नॉडॉन्ग का इस्तेमाल जापान के खिलाफ किया जा सकता है और इसके हमले से बड़ी तादाद में आम लोग हताहत हो सकते हैं.
मुसुडैन मिसाइल
मुसुडैन प्रक्षेपास्त्रों को नॉडॉन्ग बी और ताइपॉडॉन्ग-एक्स भी कहा जाता है. इंटरमीडिएट रेंज के इन बैलेस्टिक प्रक्षेपास्त्रों को संभावित निशाना जापान के ओकिनावा और प्रशांत महासागर में स्थित अमरीकी अड्डों पर हो सकता है.
इनकी मारक क्षमता के बारे में नाटकीय अनुमान सामने उभर कर आए हैं. इसराइल के खुफिया रिपोर्टों में कहा गया है कि ये 2500 किलोमीटर दूरी तक की मारक क्षमता रखते हैं जबकि अमरीकी मिसाइल प्रतिरक्षा एजेंसी का अनुमान है कि इनकी रेंज 3200 किलोमीटर है.
दूसरे सूत्र इसे 4000 किलोमीटर की दूरी तक बताते हैं. परमाणु अप्रसार अध्ययन केंद्र के मुताबिक एक सच यह भी है कि इन प्रक्षेपास्त्रों का कभी सार्वजनिक तौर पर परीक्षण नहीं किया गया है और इसी वजह से अनुमानों में यह अंतरा दिखाई देता है. इनकी वजन ले जाने की क्षमता भी अज्ञात है.
उन्हा स्पेस लॉन्चर सहित ताइपॉडॉन्ग-1 और ताइपॉडॉन्ग-2
ताइपॉडॉन्ग-1 को उत्तरी कोरिया का पहला बहुस्तरीय मिसाइल कहा जाता है. सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों के आधार पर फेडरेशन ऑफ अमरीकन स्टडीज का मानना है कि नॉडॉन्ग मिसाइल पहला चरण था जबकि हॉसॉन्ग-6 दूसरा चरण.
इसकी अनुमानित मारक क्षमता 2200 किलोमीटर तक है और हॉसॉन्ग के बारे में यह समझा जाता है कि यह नॉडॉन्ग से कम सटीक है. कहा जाता है कि ताइपॉडॉन्ग-1 का परीक्षण अगस्त 1998 में स्पेस लॉन्चर के तौर पर किया गया था.
सामान्य बैलेस्टिक मिसाइल की तरह इस पर अधिक वजन का भार नहीं दिया गया था. उस समय यह कहा गया था कि अंतरिक्ष की कक्षा में किसी छोटे सैटेलाइट को प्रक्षेपित करने के इरादे से इसे विकसित किया गया है.
फेडरेशन ऑफ अमरीकन स्टडीज का कहना है कि इनके परीक्षण के पहले दो चरण कामयाब रहे थे लेकिन तीसरा चरण कारगर नहीं रहा और पृथ्वी की कक्षा में कोई सैटेलाइट नहीं भेजा जा सका.
फेडरेशन के मुताबिक इस बात की पूरी संभावना है कि ताइपॉडॉन्ग शुरू से ही एक स्पेस लॉन्चर की तर्ज पर विकसित किया जा रहा था और इसके सैन्य इस्तेमाल की कोई मंशा कभी रही ही नहीं थी.
ऑस्ट्रेलिया, अमरीका और दूसरे देश भी जद में
ताइपॉडॉन्ग-2 भी दो से तीन चरणों वाला एक बैलेस्टिक मिसाइल है और इसे ताइपॉडॉन्ग-1 के उन्नत संस्करण के तौर पर पेश किया गया है. इसकी मारक क्षमता का अनुमान 5000 से 15000 किलोमीटर की दूरी के बीच लगाया गया है.
परमाणु अप्रसार अध्ययन केंद्र के मुताबिक इसकी अधिकतम मारक क्षमता 6000 किलोमीटर तक हो सकती है.
दिसंबर 2012 से पहले ताइपॉडॉन्ग-2 और उसकी तकनीक का 2006, 2009 और अप्रैल 2012 में तीन बार परीक्षण किया गया था और तीनों ही मौकों पर यह नतीजे देने में नाकाम रहा था.
उत्तर कोरिया में ताइपॉडॉन्ग-2 के स्पेस लॉन्चिंग संस्करण को उन्हा के नाम से बुलाया जाता है पिछली नाकामियों के बाद 12 दिसंबर 2012 को संपन्न हुए तीन चरणों वाले रॉकेट का परीक्षण कामयाब रहे थे. इस रॉकेट में उन्हा तकनीक का इस्तेमाल किया गया है.
अगर ताइपॉडॉन्ग-2 के परीक्षण कामयाब होते हैं और इसकी मारक क्षमता अपनी अधिकतम स्तर पर होती है तो ऑस्ट्रेलिया, अम
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