नसीर लिखते हैं कि क्या असल जिंदगी में मुश्किलों से सामना करना ही उन्हें अभिनेता बनने के लिए प्रेरित करता रहा था।
बेटी हीबा को नसीर ने बरसों तक नहीं अपनाया और इस बारे में वो कहते हैं कि वो तमाम अपरिपक्व पिताओं की तरह अपनी ही संतान से जलन महसूस करते रहे। ऐसी जलन जो सिर्फ एक पिता महसूस करता है।
नसीर का कहना है कि जब आप पहली बार किसी अनोखी चीज को देख कर हैरान होते हैं तो वही सच्चा अहसास है। उसके बाद के आश्चर्य तो पहले वाले के झटकों की तरह है।
सुभाष घई से मिलने से पहले नसीर उस पारस के बारे में नहीं जानते थे जो बदसूरत शख्स को हैंडसम बदसूरत में बदल सकता हो।
नसीर ने फिल्मों और थियेटर को अलग अलग करते हुए कहा है कि फिल्में आपको सपनों की दुनिया का बंदी बनाने के लिए हर हथकंडा अपनाती हैं, जबकि थियेटर आपको उत्तेजित करता है और आपके सपनों से अछूता रह कर भी बहुत ऊंचाई पर ले जाता है।
नसीर के हिसाब से वन एक्टर वन ऑडियेंस थियेटर की सर्वोत्म परिभाषा है।
कड़कड़ती ठंड में बारिश और कोहरे के बीच रेनकोट और रबर कैप पहन कर अपना बैग लेकर चलना नसीर का एक रूमानी ख्याल है पर उसका रिश्ता स्कूल बैग से नहीं है। वो ख्याल उन्हें आज भी नापसंद है।
आज भी रिजेक्ट किए जाने को लेकर सहज नहीं हो पाये नसीरुद्दीन।
अभिनेता बनने पर नसीर को ना कल, ना आज कोई अफसोस नहीं है क्योंकि उन्होंने वही चुना जो उन्हें पसंद था और ये उनके लिए शेक्सपियर के लिए चलाई जाने वाली किसी मिशनरी जैसा अनुभव है।
नसीर के अनुसार गैर परंपरावादी अभिनेता होना आज भी फिल्मी दुनिया में स्वीकार्य नहीं है। उसे तभी चुना जाता है जब कोई भी बड़ा अभिनेता किसी खास भूमिका को करने के लिए तैयार नहीं होता।
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