लगभग 27 बरस पहले लिखी गई वाल्टर ऐंडरसन और श्रीधर दामले की किताब "दी ब्रदरहुड इन सैफ्रन" की गिनती आज भी संघ पर हुए बेहतरीन शोध कार्यों में होती है. वाल्टर ऐंडरसन 2003 तक अमरीकी विदेश विभाग से जुड़े रहे, वो दिल्ली में अमरीकी दूतावास में भी कार्यरत रहे और अब वाशिंगटन के जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशिया प्रोग्राम के निदेशक हैं.
ऐंडरसन अब इस किताब को नए सिरे से लिखने पर काम कर रहे हैं. संघ और मोदी पर उनका क्या रुख़ है ये जानने के लिए मैने उनसे वर्जीनिया के ग्रेट फॉल्स इलाके में उनके घर जाकर बात की:
भारत की जो गूगल पीढ़ी है उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में बहुत कम जानकारी है. क्या है संघ परिवार और इसका उद्देश्य क्या है?
इस संगठन की शुरूआत 1920 के दशक में हुई थी और इसका गठन एक तरह से पहले विश्व युद्ध के बाद पैदा हुए सांप्रदायिक माहौल में हिंदुओं की रक्षा करने के लिए हुआ. लेकिन फिर इसने एक ऐसे संगठन का रूप लिया जहां एक सोच उभरी कि नौजवानों के चरित्र निर्माण और अनुशासित जीवन के माध्यम से भारत का पुनरूत्थान हो सकता है.
भारत-पाक विभाजन की घोषणा के बाद उनकी छवि हिंसा में विश्वास रखने वाले संगठन की बनी और पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हिंदुओं की रक्षा के लिए उन्होंने आक्रामक रुख़ अपनाने की कोशिश की.
जब संघ के एक पूर्व सदस्य ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी तो इस संगठन पर प्रतिबंध लग गया लेकिन इस बात का कोई सबूत नहीं मिला कि हत्या में संघ की कोई भूमिका थी या नहीं.
क्या दुनिया में इस तरह के दूसरे संगठन हैं जो आरएसएस के समानांतर हों?
ये काफ़ी हद तक हिंदुत्व पर आधारित है इसलिए जूडाइज्म, ईसाइयत या इस्लाम से जुड़े संगठनों से इसकी तुलना मुश्किल है. लेकिन जापान का बौद्ध संगठन "साका गाकाई" काफ़ी हद तक आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी का मिला-जुला स्वरूप है.
जब इसका गठन हुआ था तो ये सवाल भारत में कई लोगों के मन में था कि ऐसा क्यों है कि हज़ारों मील दूर बसा एक छोटा सा देश हम पर शासन कर रहा है. इसके संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार का जवाब था कि भारतीय बंटे हुए हैं इसलिए ऐसा हुआ है और उस खाई को पाटने के लिए उन्होंने एक विस्तृत प्रशिक्षण प्रणाली की बात की जो भारत को संगठित कर सके.
ये संस्था जाति-व्यवस्था के भी ख़िलाफ़ रही है. आज दुनिया में शायद ही कोई संस्था है जिसका संगठन इतना सशक्त है. ये शिक्षा से जुड़े हुए हैं, आदिवासियों के उत्थान के लिए काम कर रहे हैं, महिलाओं के बीच काम कर रहे हैं, भारत का स बसे बड़ा मज़दूर संगठन और छात्र संगठन भी इन्हीं का है.
आपने 27 साल पहले संघ पर किताब लिखी थी. तब के मुक़ाबले 2014 का संघ परिवार कितना अलग है?
उनका दर्शन वही है, प्रशिक्षण व्यवस्था वही है लेकिन भारत का सामाजिक ढांचा काफ़ी बदल गया है और उन्हें उन बदलावों के साथ क़दम मिलाना पड़ रहा है. ख़ासतौर से इस बात की चिंता है कि मध्यम वर्ग की जो नौजवान पीढ़ी है उनके लिए वे अप्रासंगिक हो जाएंगे अगर उन्होंने उनकी समस्याओं को अनदेखा किया.
इस बार के चुनावों में मोदी के लिए जो उत्साह संघ के कार्यकर्ताओं में नज़र आया उससे शीर्ष नेतृत्व में चिंता थी कि कहीं इनका रूझान संघ के कार्यों को दरकिनार कर राजनीतिक दिशा में न हो जाए.
संघ की जो प्रार्थना है--नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे--उसमें हिंदू राष्ट्र का ज़िक्र है. ये शब्दावली बहुत लोगों को चिंतित करती है भारत में. क्या है आरएसएस का ये हिंदू राष्ट्र?
इसके कई अर्थ निकाले गए हैं. लेकिन संघ के पूर्व प्रमुख गोलवलकर की परिभाषा काफ़ी हद तक 19वीं सदी की यूरोपीय रोमांटिक राष्ट्रवाद से मिलती है जिसमें मातृभूमि या मदरलैंड की बात होती है. इसमें काफ़ी हद तक हिंदुत्व की भी झलक है जहां भूमि आराध्य बन जाती है. लेकिन ये एक तरह की देशभक्ति का स्वरूप है और मोदी में भी आपको इसकी झलक मिलेगी.
मोदी में आपको संघ कितना नज़र आता है?
ये काफ़ी मुश्किल सवाल है क्योंकि गुजरात में संघ के साथ उनके काफ़ी तनावपूर्ण संबंध रहे हैं. ख़ासकर संघ से जुड़े विश्व हिंदू परिषद से जो संघ से संबद्ध संस्थाओं में काफ़ी कट्टरपंथी माना जाता है.
जो मेरा आकलन है वो ये कि मोदी अपने मन की करते हैं जबकि आरएसएस एक सामूहिक नेतृत्व में विश्वास रखता है. तो उनको लेकर गुजरात आरएसएस में ही नहीं नागपुर मुख्यालय में भी आशंकाएं तो हैं.
संघ में मेरे एक जानकार ने मुझे बताया कि उनकी समझ से ये पहली बार है जब कार्यकर्ताओं ने शीर्ष नेतृत्व पर दबाव डाला कि इस चुनाव में वो मोदी का साथ दें और उन्हें अपनी दिशा बदलने के लिए बाध्य किया. आरएसएस से जुड़े बीजेपी के एक वरिष्ठ सदस्य ने मुझे बताया कि मीडिया में भले ही ये सोच हो कि संघ मोदी पर हावी होगा. हक़ीकत इससे बिल्कुल उल्टी है. और ये बेहद दिलचस्प है.
आप पहली बार मोदी से कब मिले?
जब वो वाशिंगटन आए थे 1992 में. मैं तब भारत से लौटा ही था और वो एक प्रतिनिधिमंडल के सदस्य बन कर आए थे. जो मुझे याद है वो एक गंभीर किस्म के इंसान थे और बहुत सारे सवाल पूछते थे.
पिछले साल जब आप उनसे मिले तो क्या बदलाव नज़र आया?
ये कहना मुश्किल है क्योंकि मैं उनका अंतरंग तो नहीं हूं. दरअसल, शायद ही कोई है. लेकिन जो मुझे दिखा वो था उनका आत्मविश्वास और वो निश्चित तौर से अपने मन के मालिक हैं.
उनका फ़ोकस काम को अंजाम देने पर होता है. मुझे बताया गया कि वो कभी छुट्टी नहीं लेते. जिस कमरे में हमारी मुलाक़ात हुई वो अपनी सादगी में बिल्कुल मठ की तरह नज़र आता था. उनका बार-बार कहना था कि हमें चीन की तरह काम करना चाहिए.
अमरीका को लेकर उनकी सोच क्या है?
हम दोनों के बीच वीज़ा मामले पर बात नहीं हुई क्योंकि वो एक संवेदनशील मामला है. लेकिन ये तय है कि उनका ध्यान अमरीका की तरफ़ नहीं, जापान, चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर होगा. हिंदू राष्ट्रवादियों का रुझान हमेशा से पूरब की ओर रहा है.
बीसवीं सदी में भी इस सोच से प्रेरित लोग अध्ययन के लिए जापान का रुख़ करते थे. अंदर की सोच ये भी रही है कि पश्चिम से जो चीज़ें आईँ--इस्लाम, ईसाई धर्म, उपनिवेशवाद--इन सब ने समस्या पैदा की. अगर देखें तो पिछले सालों में मोदी ने सिंगापुर, जापान और चीन का ही दौरा किया है और वो भी कई बार. तो ये आर्थिक और सांस्कृतिक नीति का मिला-जुला स्वरूप होगा.
ओबामा प्रशासन के लिए मोदी को लेकर आपकी क्या सलाह होगी?
सबसे पहले तो वो दक्षिण एशिया पर एक ठोस नीति बनाएं जो अब तक नहीं नज़र आई है. मेरी समझ से रिपब्लिकन प्रशासन और तब की विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस की समझ इस मामले पर काफ़ी अच्छी थी कि भारत कहां फ़िट बैठता है.
हो सकता है अगर हिलेरी क्लिंटन अगली राष्ट्रपति बन जाएं तो रिश्ते बेहतर होंगे क्योंकि वो भारत को समझती हैं.
मोदी को वीज़ा नहीं देने का जो मामला था क्या वहां कोई चूक हुई अमरीका से?
देखें उस समय गुजरात के साथ समस्या थी. ये मामला काफ़ी हद तक हिंदू बनाम ईसाई टकराव का मामला बन गया था. जो यहां के एवैंजेलिकल क्रिश्चन हैं (जो ईसाई धर्म के प्रचार में काफ़ी आक्रामक रुख़ अपनाते हैं) वो मोदी से ख़ासे नाराज़ थे और उन्होंने वीज़ा नहीं देने के लिए बहुत दबाव डाला.
बाद में जो इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ थे उन्होंने ये भी कहा कि किसी अदालत में उनके ख़िलाफ़ आरोप नहीं साबित हुआ है लेकिन तब तक ये मामला सरकारी तंत्र में इतना उलझ गया कि किसी के लिए ये फ़ैसला बदलना मुश्किल था. ओबामा के न्योते से ये मामला ख़त्म हो गया है लेकिन मोदी के मन में कड़वाहट नहीं होगी ऐसा नहीं है.
विदेश नीति ख़ासकर पाकिस्तान को लेकर मोदी का रुख़ क्या होगा?
मेरी समझ से बीजेपी का प्रधानमंत्री पाकिस्तान के साथ समस्याओं को सुलझाने में एक बेहतर स्थिति में होता है. कुछ हद तक ये निक्सन और चीन की तरह का मामला है. उनकी देशभक्ति पर कोई उंगली नहीं उठाता. वो सचमुच कुछ ऐसा चाहते हैं जिससे पाकिस्तान के साथ तनाव ख़त्म हो.
उनके एजेंडे में सबसे ऊपर क्या है? बिल क्लिंटन के शब्दों का इस्तेमाल करूं तो--इकॉनॉमी, स्टूपिड. वो सबकुछ आर्थिक तराजू पर तौलकर देखेंगे और पाकिस्तान के साथ तनाव इस लक्ष्य के रास्ते में बाधा बनेगा, अर्थव्यवस्था और निवेश पर इसका बुरा असर होगा. तो वो कोशिश करेंगे कि पाकिस्तान के साथ रिश्तों में एक ठहराव आए.
कश्मीर को सुलझाना आसान नहीं होगा लेकिन कोशिश इस बात की होगी कि कोई बीच का रास्ता निकले.
दक्षिण एशिया के नेताओं ख़ासकर नवाज़ शरीफ़ को न्योता देने के फ़ैसले को आप किस तरह देखते है?
ये बहुत शानदार कूटनीतिक क़दम है. मनमोहन सिंह से मैं कभी इसकी उम्मीद नहीं करता क्योंकि वो सब कुछ एक दायरे में रहकर करते थे, सरकारी तंत्र की ही सुनते थे.
मोदी में आप दुनिया के किस नेता की झलक देखते हैं - पुतिन, मार्गरेट थैचर, रोनाल्ड रेगन?
इनमें से किसी से तुलना मुश्किल है क्योंकि सांस्कृतिक संदर्भ अलग है. वो अटल बिहारी वाजपेयी से काफ़ी प्रभावित हैं, और जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय को एक हीरो मानते हैं. वाजपेयी को भी वो उन्हीं नज़रों से देखते हैं.
इतिहासकार विलियम डैलरिंपल उन्हें भारत का पुतिन कहते हैं.
अगर तुलना करनी ही हो तो जिस तरह से पुतिन एक महान रूस के पक्ष में हैं उसी तरह मोदी भी महान भारत का सपना देखते हैं. क्या वो पुतिन की तरह उन लोगों से चिढ़ते हैं जो अपने काम में ढीले हैं?
बिल्कुल.
लेकिन विश्व नेताओं में ये कोई बेहद अनूठी चीज़ नहीं है. मैं अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन के कार्यकाल के दौरान भी वाशिंगटन में था.
अगर आप उनका विरोध करते तो उनका रुख़ ऐसा होता था जैसे वो आपके हाथ तोड़ देंगे. मैं ये नहीं कह रहा कि मोदी का ये रुख़ होगा लेकिन वो उन लोगों में से हैं जो सोचते हैं कि काम हर हाल में पूरा हो.
एक भारतीय राजदूत से मेरी बात हो रही थी तो उनका कहना था कि नौकरशाही में इस बात का डर है कि मलाई खाने के दिन गए. वो लोगों का छुट्टी पर जाना पसंद नहीं करते और कई बार तो जहां काम चल रहा होता है ख़ुद वहां पहुंच जाते हैं ये देखने कि बात कहां तक पहुंची. पुतिन ऐसा नहीं करते.
भारत के मुसलमान समुदाय में उनको लेकर आशंकाएं हैं. क्या वो सही हैं?
आशंकाएं हैं लेकिन अगर देखें तो पहले के मुक़ाबले उन्हें मुसलमानों का काफ़ी वोट मिला है. मुसलमान समुदाय अभी भी सबसे ग़रीब तबकों में गिना जाता है. उन्हें आर्थिक विकास की सख़्त ज़रूरत है और उनमें से कई हैं जिन्हें नौकरी और विकास का एजेंडा पंसद आया है.
लेकिन कई मामले हैं जैसे वंदे मातरम, यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड, धारा 370 - ये विवादास्पद हैं. मोदी का क्या रुख़ होगा इन पर?
मुझे नहीं लगता वो इसे बहुत बड़ा मुद्दा बनाएंगे. लेकिन वैचारिक रूप से वो यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड के हक़ में है. लेकिन मेरी पत्नी भी उसके हक में. वो एक प्रगतिशील भारतीय हिंदू है और मानती हैं कि ये क़ानून पिछड़ापन पैदा करता है. मेरी भी सोच यही है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि वो इस पर ज़ोर देंगे क्योंकि ये विवादास्पद बन जाता है और कई मुसलमानों को ये पसंद नहीं आएगा.
जहां तक धारा 370 की बात है तो हमें ये मान लेना चाहिए कि कांग्रेस की सरकारों ने पहले ही से उसे दरकिनार कर दिया है. सच पूछें तो कश्मीर आज किसी अन्य भारतीय राज्य की तरह है. मुझे लगता है मोदी भी इसे प्रतीकात्मक रूप में संविधान में रहने देंगे क्योंकि इसे हटाने की कोशिश में बहुत सारी समस्याएँ पैदा होंगी.
भारत का भगवाकरण उनके एजेंडा पर कितना ऊपर होगा?
बहुत ऊपर नहीं होगा. दिलचस्प बात ये है कि वो आर्थिक विकास को भगवा एजेंडा की तरह से देखते हैं. अन्य हिंदू राष्ट्रवादियों की तरह वो भी भारत को एक महान राष्ट्र की तरह देखते हैं जो विश्व मंच पर एक बड़ी भूमिका अदा कर सकता है.
पिछले दो सालों में विश्व मंच से भारत गायब नज़र आया है. वो आर्थिक विकास के ज़रिए उसे बदलना चाहते हैं. वो पारंपरिक सांस्कृतिक विचारों में ज़रूर यकीन रखते हैं जो बनारस के शंखनाद और यज्ञों में नज़र आया. लेकिन मेरे लिए वो धार्मिक से ज़्यादा भारतीय संस्कृति के प्रतीक की तरह था.
हां, उनकी बड़ी चुनौती होगी कट्टर दक्षिणंथी हिंदुओं पर लगाम कसना. उनकी उन लोगों से कभी नहीं बनी है और चुनाव प्रचार के दौरान भी हमने देखा कि उन्होंने उनसे मुंह बंद रखने को कहा.
क्या ऐसा संभव है कि केंद्र में बीजेपी सरकार के माध्यम से संघ अपनी नीतियां लागू करने की कोशिश करे और अगर ऐसा होता है तो वो किन क्षेत्रों में नज़र आएगा?
संघ एक संवैधानिक ढांचे के तहत ही काम करता है. पहले भी जब बीजेपी सत्ता में थी तो उन्होंने ऐसा ही किया था. मुझे लगता है कि उनकी कोशिश होगी कि शिक्षा प्रणाली में भारत की प्राचीन सभ्यता को ज़्यादा अहमियत मिले. हो सकता है कि पाठ्य पुस्तकों में बदलाव की कोशिश हो और उनके शब्दों में भारत का जो वास्तविक इतिहास है उस पर ज़ोर हो.
आदिवासियों और दलितों के उत्थान की नीतियों पर ज़ोर होगा और ये नीति मोदी की सोच से भी मिलती है. इनका पिछड़ापन एक संगठित भारत की सोच के लिए नुक़सानदायक है और इसलिए इस क्षेत्र में और संसाधन लगाने की वो वकालत कर सकते हैं.
आर्थिक नीति पर संघ और मोदी की सोच कितनी अलग है?
संघ पारंपरिक रूप से स्वदेशी के पक्ष में रहा है. संघ और शुरुआती दिनों में बीजेपी के भी समर्थकों में छोटे व्यवसायियों की बड़ी तादाद थी और ये लोग भी स्वदेशी के पक्षधर रहे हैं. संघ से जुड़े कई विचारक भी विदेशी निवेश के ख़िलाफ़ नज़र आते हैं.
मोदी की सोच अलग है क्योंकि पिछले 13 सालों में उन्होंने गुजरात में जापान और चीन समेत अन्य विदेशी निवेश को काफ़ी बढ़ावा दिया. मेरा अंदाज़ा है कि वो खुदरा विदेशी निेवेश के भी हक़ में होंगे.
जिन दो अर्थशास्त्रियों से वो प्रभावित नज़र आते हैं वो हैं अरविंद पनगढ़िया और जगदीश भगवती और ये दोनों इसे अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा मानते हैं. तो इस मामले पर संघ और मोदी में टकराव पैदा हो सकता है.
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