कहानी :
एक मुस्लिम घर पे इल्जामात और मुसीबतों के पहाड़ तब टूट पड़ते हैं, जब उसी घर के एक लड़का जिहाद का हिस्सा बन जाता है, अनजाने में ही पूरा परिवार 'जजमेंटल सोसाइटी' के दंश को झेल रहा है। कोर्ट में न्याय होना है, और फिल्म की बाकी कहानी न्याय के पहलुओं से अवगत कराती है।
समीक्षा
ये एक परिवार की कहानी है, और इसे वैसे ही देखा जाना चाहिए, संकट के समय मे एक ही परिवार के सदस्यों का एक दूसरे की तरफ क्या फर्ज होना चाहिए और परिवार के लिए जो सही है वही करना चाहिए। फिल्म परवरिश से लेकर रवायत तक और देशप्रेम से लेकर इंसानियत तक हर पहलू में डील करती है। फिल्म काफी सलीके से लिखी हुई है और यही कारण है कि फिल्म बिना जजमेंटल हुए अपनी बात कहती मात्र है, अंत मे जजमेंट वो आपके ऊपर छोड़ देती है। कई लिहाज से ये फिल्म देखने लायक है और फिल्म का सबसे अहम हिस्सा है फिल्म का क्लाइमेक्स जो कि आपको 'खुदा के लिए' से मिलता जुलता है, जज साहब का फैसला इस फिल्म का वो हिस्सा है जो सही और गलत के द्वंद में जूझती उस जनता के लिये सीख है जिनके लिए वाट्सएप्प फारवर्ड ही परम सत्य है। काफी दिनों से बहुत सारी प्रोपेगंडा फिल्म्स देखता आ रहा हूँ, पर इम्प्रेस्ड इसलिए हूँ कि जो फिल्म शुरू एक प्रोपगंडा फिल्म की तरह होती है, वो अंत में जाकर एक ह्यूमन फिल्म बन जाती है।
टेक्निकल पॉइंट :
आर्ट डायरेक्शन, कॉस्ट्यूम और सिनेमाटोग्राफी बेहद रीयलिस्टिक है, फिल्म का म्यूजिक भी फ़िल्म के हिसाब से एक दम परफेक्ट है।
And the trailer of our film “Mulk” for you! https://t.co/NQ8qZ89vCn
— Rishi Kapoor (@chintskap) July 9, 2018
अदाकारी :
ये इस फिल्म का सबसे मजबूत हिस्सा है इसकी कास्टिंग, खासकर जज के किरदार में कुमुद मिश्रा तो गज़ब ही हैं, नीना गुप्ता और प्राची शाह, रजत कपूर और मनोज पाहवा भी अपने अपने किरदारों को जीते हैं। आशुतोष राणा का चरित्र बड़ा वनटोन लिखा हुआ है, इसलिए उनका पेरफर्मेन्स भी वैसा ही है। तापसी ने जो कुछ भी पिंक से हासिल किया, और नाम शबाना से आगे बढ़ाना चाहती थी, वो इस फिल्म से कर दिया है। उनकी परफॉर्मेन्स बड़ी कंपोज्ड है और ये उनका अब तक का सबसे उम्दा परफॉर्मेन्स है। उनका परफॉर्मेन्स, राजी में आलिया के परफॉर्मेन्स से किसी हालात में कम नहीं है। ऋषि कपूर का भी ये रोल उतना ही अच्छी तरह से निभाया गया है, जैसे वो कपूर एंड संज और दो दूनी चार में निभा चुके हैं।
ये एक हिन्दू मुस्लिम विवाद से रिलेटेड या कम्युनल एजेंडा वाली फिल्म नहीं है। ये एक पारिवारिक, सोशल और लीगल पॉइंट ऑफ व्यू रखने वाली फ़िल्म है जो हम जिस समाज मे जी रहे हैं उसका आईना भर दिखती है। सोच वही है जो राकेश ओमप्रकाश मेहरा की दिल्ली 6 की थी पर ये फिल्म उस सोच को राष्ट्र और राष्ट्रीय सौहार्द के कांस्टीट्यूशनल अप्रोच को जोड़ती है, उसी समाज मे जिसको हमने 'वो' और 'हम' में तख्सीम कर दिया है। काश इस फिल्म के अंत मे जो जजमेंट स्पीच दी गई है वो उसी तरह व्हाट्सएप्प फारवर्ड बन कर सबके पास पहुंचे जैसे बाकी के इलॉजिकल फालतू फारवर्ड हम तक फर्राटे से पहुंच जाते हैं।
रेटिंग : ****1/2
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