कहानी
मॉडर्न टाइम के देसी रॉबिनहुड वीर की शादी की कहानी है।
समीक्षा
भारत में बच्चे पैदा ही उनकी शादी करने के लिए किये जाते हैं। ऐसा भ्रम ऐसी ही फिल्में पैदा करती हैं। खासकर फीमेल लीड का तो एक ही मकसद होता है जीवन में, शादी करना। 'वीरे की वेडिंग' कुछ अलग नहीं है। अंत तो सबको पता होता है कि फिल्म में अंत मे क्या होने वाला है। उस अंत तक पहुंचने से पहले की कहानी अच्छी होती है तो फिल्म 'शुभ मंगल सावधान' जैसी बनती है और अगर खराब होती है तो फिल्म 'हाउसफूल 3' या 'क्या कूल हैं हम 3' जैसी हो जाती है। जैसा कि मैंने कहा कि वेडिंग की थीम तो वेडिंग ही रहती है। वही दो परिवार जो अलग अलग हैं। वही केरीकेचर किरदार (दोस्त, सहेलियां, परिवार वाले) और लाइफ के टंटे जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेते। और हां, लास्ट में आके सबका हृदयपरिवर्तन होना भी तय है। नया क्या देखने को मिला, कुछ भी नहीं। फिल्म के जोक्स और उसमें लिपटे हुए संवाद एकदम कबाड़ी की दुकान से उठा कर लाये हुए स्कूटर जैसे लगते हैं। जैसे वो सालों से सड़ रहे थे और फिल्म के राइटर्स उनपे बस लीपा पोती करके आपके सामने ले आते हैं, जैसे वो नया स्कूटर हो। सीन दर सीन आपको पता होता है कि अगले सीन में क्या होने वाला है। बस रह जाते हैं कपड़े, जो इस और इन जैसी फिल्मों को देखने का एक मात्र कारण बन सकते हैं। कहने का मतलब है कि जिस घर मे शादी होने वाली हो, उस घर के लोग इन फिल्मों को इसलिए देखने जा सकते हैं कि वो अपने दर्जी को ये बता सकें कि शेरवानी और लहंगे कैसे बनेंगे।
अदाकारी
फिल्म के सभी किरदार ओवर द टॉप लाउड हैं। अगर जिम्मी शेरगिल न हों तो फिल्म देखना एक टास्क बन जाये। पुलकित की एक जैसी फिल्म्स देख कर अब मन ऊब सा गया है। उनकी अदाकारी उस खराब जेनेरेटर जैसी है जो शादी के घर में है जो बत्ती चली जाने पर स्टार्ट नहीं हो रहा।
वीरे दी वेडिंग एक रद्दी फिल्म है और इसको देखने से अच्छा है कि आप वेलकम या मुबारकां देख डालें। वैसे तो इस फिल्म को कोई रेटिंग देने का सवाल नहीं उठता पर जो भी इस फिल्म को मिला है वो जिम्मी शेरगिल के परफार्मेंस की वजह से है। इस फिल्म को देखने की और कोई वजह मुझे तो दिखती नहीं है। इस वेडिंग से दूर ही रहिये इससे बेहतर तो आप सोनू के टीटू की स्वीटी देख लें या शादी वाली फिल्म नहीं देखना चाहते तो इस हफ्ते परी देख लीजिए।
Review by : Yohaann Bhargava
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