एक ही तीर से निशाना
समस्या यह है कि हम जरूरी मुद्दों पर भी सीधी बातें नहीं कर सकते। कहीं से कोई आवाज उठती है और समाज के नैतिक पहरेदार उस फिल्म, किताब और विचार पर पाबंदी लगाने की बातें करने लगते हैं। करण अंशुमान ने बैंगिस्तान में सार्थक प्रहसन रचा है। उन्होंने नार्थ और साउथ बैंगिस्तान के धर्मावलंबियों को बांट कर एक ही तीर से निशाना साधा है। नार्थ के ईमाम और साउथ के शंकराचार्य तो सभी मामलों में स्काइप के जरिए एक-दूसरे के संपर्क में रहते हैं, लेकिन उनके इलाके के कट्टरपंथियों की सोच कुछ और है। वे अपना प्रभाव और डर बढ़ाने के लिए साजिशें रचते रहते हैं।
सटीक तरीके से पेश किया
महज संयोग नहीं है कि दोनों हमशक्ल हैं। मजहब कोई भी हो आतंकवादी का चेहरा एक ही होता है। बहुत खूब करण। गौर करें तो करण ने मां का दल और अल काम तमाम संगठनों के माध्यम से अतिवादी विचारों के हिमायतियों के कार्य और व्यवहार को सटीक तरीके से पेश किया है। प्रहसन की एक खासियत होती है कि दर्शक मूल स्रोतों को समझ रहे होते हैं। यहां भी स्पष्ट है कि उनकी मंशा क्या है? तमाम आधुनिकता के बावजूद वे कहीं अटक गए हैं। दोनों अपने नुमाइंदों को विश्व सर्वधर्म सम्मेलन में तबाही मचाने के लिए पोलैंड भेजते हैं।Bangistan
Director: Karan AnshumanCast: Riteish Deshmukh,Pulkit Samrat,Jacqueline Fernandez,Chandan Roy Sanyal
गीता और कुरान का जिक्र
हफीज बिन अली (रितेश देशमुख) और प्रवीण चतुर्वेदी (पुलकित सम्राट) एक-दूसरे के मजहब को चोला धारण करते हैं। इस प्रक्रिया में वे एक-दूसरे के धर्म को करीब से समझते हैं। फिल्म में गीता और कुरान का जिक्र आता है। पता चलता है कि इस अभियान में दोनों मजहबों के प्रतिनिधि दूसरे पक्ष के हमदर्द बन जाते हैं। करण प्रहसन के प्रयोग में एक स्तर पर जाकर उलझ जाते हैं। यहां दोनों कलाकार आने किरदारों के साथ हावी हो जाते हैं।
कॉमिकल और पॉलिटिकल तरीके से
फिल्म थोड़ी कमजोर होने के साथ फंस जाती है।करण अंशुमान ने पहली कोशिश में ही आतंकवाद के प्रासंगिक मुद्दे को कॉमिकल और पॉलिटिकल तरीके से कहने की कोशिश की है। वे पूरी तरह से सफल नहीं रहे हें, लेकिन उनके इस प्रयास की तारीफ होना चाहिए। वे नई पीढ़ी के उन फिल्मकारों में जो नए विषयों के साथ प्रयोग कर रहे हें। उन्हें रितेश देशमुख, पुलकित सम्राट और कुमुद मिश्रा का भरपूर साथ मिला है। रितेश तो अपने किरदार की मर्यादा में रहते हैं, लेकिन पुलकित प्रभाव बढ़ाने के लिए किए गए अतिरिक्त प्रयास में किरदार से बहक जाते हैं।
कट्टरपंथियों के डबल रोल
संवाद में ही सही रितेश उनसे कह भी देते हैं, तुम तो बुरे एक्टर निकले। कुमुद मिश्रा ने अवश्य अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह किया है। दोनों मजहबों के कट्टरपंथियों के डबल रोल में वे निर्देशक की सोच रख सके हैं। फिल्म में कसावट नहीं है। करण ने चरित्र और स्थितियां तो रची हैं, पर सटीक चित्रण में कमी सी रह गई है। साथ ही संवादों में विचारों और कटाक्ष की भरपूर संभावनाएं थीं। संवाद और दमदार एवं मारक हो सकते थे।
Review by: Ajay Brahmatmaj
abrahmatmaj@mbi.jagran.com
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