हम सभी इस तथ्य से वाकिफ हैं की मनुष्य जीवन में कई सारे उतार-चढ़ाव आते हैं जो कभी सुखद व अनुकूल होते हैं और कभी फिर दुखद व प्रतिकूल भी होते हैं। विश्व के वर्तमान हालातों को देखते हुए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की हाल फिलहाल चारों ओर प्रतिकूलताएं ज्यादा हैं और उनसे निपटने की शक्तियां बहुत कम। किन्तु ऐसे माहौल के बीच भी हमें यह बात भूलनी नहीं चाहिए की जिस प्रकार से रात्री के अंधकार से दिन का प्रकाश विविधता उत्पन्न करता हैं, पतझड़ के मौसम से बसंत की बहार का पता चलता है, ठीक उसी प्रकार से दु:ख और कष्ट से सुख तथा आनंद का रस आता है। जैसे कोई भी व्यक्ति मीठा खा-खा के जब उब जाता है, तब उसे अपने जीभ का स्वाद बदलने के लिए नमकीन खाना पड़ता है, उसी प्रकार से जीवन में आगे बढने के लिए व प्रगति करने लिए कष्ट एवं कठिनाइयों का आना अति आवश्यक है।
कठिनाइयों का सामना करने की बजाय उनसे भागते हैं दूर
अमूमन हम सभी के अंदर कष्ट एवं कठिनाइयों का सामना करने के बजाय उनसे दूर भागने का संस्कार बहुत प्रबल होता है और इसी वजह से उन परिस्थितयों से उत्पन्न होने वाली अनेक भावनाएं जैसे की भय, मानसिक पीड़ा इत्यादि से हम लम्बे काल तक छूट नहीं पाते हैं। कुछ लोग अपनी घर-गृहस्थ की परिस्थितियों को सुधारने में स्वयं को असमर्थ पाकर, वहां के वातावरण को दुखद मानकर अपने कर्तव्य कर्म को छोड़ देते हैं और हाथ पर हाथ रखकर केवल 'राम-भरोसे बैठ जाते हैं या फिर घर छोड़कर निकल जाते हैं। जीवन के इस दृष्टिकोण को साधारण भाषा में पलायनवाद कहा जाता है और बार-बार जीवन में आनेवाली हर छोटी-मोटी परिस्थितियों से दूर भागने वाले कोपलायनवादी कहते हैं। ऐसी वृत्ति वाला मनुष्य छोटी-छोटी बातों में घबराहट से सदैव पीड़ित रहता है। जहां परिस्थिति थोड़ी भी असामान्य हुई, वहां उसका हृदय धक-धक करने लगता है। जब कोई बड़ा कार्य सामने हो तब उसके हाथपांव फूल जाते हैं या वह कोई-न-कोई बहाना बनाकर भागने की बात सोचने के कारण तनाव में आ जाता है।
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छोटी सी भी परिस्थिति को मानने लगते हैं मुसीबत
कोई छोटी-सी भी परिस्थिति सामने आये तो वह उसे 'मुसीबत' मानने लगता है, जिसके परिणामस्वरूप उसमें सहनशीलता, स्थिरता और मनोबल विकसित नहीं हो पाते। तो क्या इस पलायनवादी वृत्ति का कोई इलाज नहीं हैं। क्या हमारा यह भागना जायज है। इस विषय पर किये गए गहरे अध्ययन से यह पता चलता है की जो लोग स्वीकार करने की शक्ति को धारण करके भूतकाल को भूल भविष्य की और कुच करते हैं, वे मोटे रूप से इस पलायनवादी वृत्ति से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो लोग बीती हुई बातों के जाल से बाहर निकलते ही नहीं, वे फिर अपने भूत, वर्तमान और भविष्य से भागते रहते हैं, क्योंकि स्वीकार करने की शक्ति के आभाव में उन्हें वास्तविकता से आंखे मुंद लेने और यथार्थ से भागने का ही उपाय सूझता है। हम सभी जानते हैं की हमारे भीतर होने वाली हर अनुभूति या संवेदनाओ का केंद्र हमारा मस्तिष्क है। इसीलिए डॉक्टर्स अपने मरीजों को अपने मनोबल को बढ़ाने की सलाह देते हैं।
राजयोगी ब्रह्माकुमार निकुंजजी
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