प्रयाग में स्वामी प्रपन्नाचार्य नामक एक महान संत थे। उनकी त्याग वृत्ति तथा पांडित्य से लोग बड़े प्रभावित थे। प्रयाग में जब माघ का मेला लगता, तब वे शिविर लगाते और मध्याह्न के समय भगवान को भोग लगाकर उपस्थित लोगों में प्रसाद बांटते। यह काम उनके प्रिय शिष्य गोविंदजी द्वारा किया जाता था। वे आगे चलकर परमार्थभूषण गोविंदाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।

एक बार गोविंदजी प्रसाद का वितरण कर रहे थे कि स्वामीजी को बाहर कोलाहल सुनाई दिया। उन्होंने गोविंदजी को बुलाकर कारण पूछा। गोविंदजी ने बताया कि एक विशेष संप्रदाय का व्यक्ति प्रसाद मांगने आया था। मैंने उसे प्रसाद नहीं दिया।

यह सुनते ही स्वामी प्रपन्नाचार्य पश्चाताप करने लगे। वे बोले, गीता में लिखा हुआ है कि भोजन की कोई जाति नहीं होती है। वह नारायण का होता है। यह जानते हुए भी प्रसाद देने में आपने भेद किया।

गोविंदजी जब तक दरवाजे पर गए, तब तक वह व्यक्ति चला गया। वे उसे ढूंढ़कर लाए और उससे क्षमा मांगी। इसके बाद उन्होंने उसे पेट भर भोजन खिलाया।

कथासार

जाति-धर्म के आधार पर कभी भोजन देने में भी भेद नहीं करना चाहिए। अन्न पर सभी का समान अधिकार है।

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