इंटरनेट डेस्‍क (कानपुर)। Mirzapur 3 Hindi Review: कबीर दास जी का एक दोहा है जिसमे वह कहते हैं कि प्राणि की न माया मरती है, न मन मरता है, यह शरीर ही बार-बार मरता है, अर्थात् अनेक योनियों में भटकने के बावजूद प्राणि की आशा और तृष्णा नहीं मरती वह हमेशा बनी ही रहती है.
यह पक्तियां मिर्जापुर-3 के किरदारों और उसे बनाने वालों पर अक्षरश: लागू होती है, जिसके चलते दो सीजन से चली आ रही बेहतर वेब सीरीज को पूरे सीजन दिशाहीन और अगले सीजन की सम्भावना बनाने के लोभ में कूड़ा कर बैठे. दर्शक पूरे 10 एपिसोड तक अपने-अपने पाले और किरदारों को पकड़े अपने नायकों की जीत की सुंगध लेना चाहते रहे, लेकिन अंत आते-आते हाथ लगी सिर्फ निराशा और अगले सीजन का गैर जरूरी इंतजार।

परोसा है बेवजह का दर्शन और ज्ञान
बहुचर्चित मिर्जापुर-3 को एक सांस और एक रात में देखने वालों को ठगे जाने का जो अहसास हुआ है उससे स्पष्ट है कि बनाने वाले इसे बनाना नहीं सिर्फ तानना चाहते थे, जो वे पूरे 10 एपिसोड तानते रहे. किसी भी किरदार में न तो वजन और न ही वास्तविकता से कोई जुड़ाव. अगर आप उत्तर प्रदेश बिहार के दर्शक हैं तो तथ्यात्मक, भाषायी और व्यर्थ की हिंसा से आप खुद को कनेक्ट नहीं कर पाएंगे. हालात तो यहां तक आ गए कि हर किरदार दर्शनशास्त्र के गूढ़ दर्शन का ज्ञान ठेलता रहा, जिसे लेने वाले न पर्दे के थे और न पर दिख ही रहे थे. ज्ञान ही सिर्फ खीचे रहने का टूल बन कर रह गया.

यह सीजन हर लिहाज से लोगों को निराश करता है. सीधे-सीधे कहा जाए तो सलीमा ने फिर से आपको पोटाश के नाम पर सल्फेट पकड़ा दिया है. जिस किरदार (कालीन भइया) के सहारे पूरा दो सीजन ताना-बाना बुना गया उसे खड़ा करने के बाद भी बैसाखी पकड़ा कर किनारे कर दिया गया, और जिसने दूसरे सीजन में खुद (गुड्डू पंडित) को साबित किया उसे भी एक टुंजपुंजिए (शरद शुक्ला) से उलझा कर उसके किरदार को भी नीचे कर दिया गया, और महान गद्दी को बता दिया गया जबकि गद्दी बनाने वाले गद्दी के सामने बौने हो गए.

फेमिनिज्म को फुग्गा समझा
महिला पात्रों को कुछ अलग देने वाली इस सीरीज ने उन्हें सिर्फ वो झुनझुना पकड़ा दिया, जिसको वे पिछले दो सीजन से ढोए जा रही थी, जबकि होना यह था कि पुरुष किरदारों के साथ इनके किरदारों को भी नया प्रतिमान देना था. न कहानी और न उस कहानी को जीने वाले किरदार. सब के सब नाहक ही डोलते-डोलते अगले सीजन आने का न्यौता दे गए. मानो कह रहे हों कि दो सीजन आपको बढिय़ा दिखाए तो एक सीजन का झोल तो आप झेल ही सकते हैं. आखिर एक्सेल एंटरटेनमेंट थोड़ा पैसा कमाने का मोह ऐसे कैसे जाने देता.
बाकी देखना हो तो देख लीजए, पर एक रात में देखने वालों के लिए सुझाव है कि अगले दिन छुट्टी और घर पर भोजन का प्रबंध जरूर जांच लें. वर्ना आपके अपने पुर (घर) की गद्दी की अगली बैठक प्रयागराज में तय है. जाते -जाते डॉयलॉग लिखने वाले के लिए सुझाव है... तनी यूपी-बिहार घूम आवा हो.

फाइनल वर्डिक्ट
भयंकर क्राइम सीन्स जो हॉलीवुड से कॉपी किए गए हैं. पंकज त्रिपाठी के साथ तो खेल कर दिया गया है और मुन्ना भइया को खूब मिस कर सकते हैं. बीते दो सीजन देखकर लहालोट हो रहे दर्शकों को यह सीरीज भयंकर निराशा दे सकती है।

Review by: Shishir Kumar